सुभद्रा कुमारी चौहान की कवितायेँ | Subhadra Kumari Chauhan Poems

Subhadra Kumari Chauhanसुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी भाषा की एक महान और प्रसिद्ध कवयित्री तथा लेखिका थीं। उन्होंने अपने जीवन में बहुत सुंदर सुंदर रचनाएँ की उनकी प्रसिद्ध कविता “झाँसी की रानी” आपने हमारे पिछले पोस्ट में पढ़ी। यह कविता झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा बताती है इसी कविता के वजह से सुभद्रा कुमारी चौहान काफ़ी प्रसिद्ध हुयी। आज हम उन्ही की कुछ और कविताओं – Subhadra Kumari Chauhan Poems को पढेंगे। आशा हैं आपको बाकि की कविता भी जरुर पसंद आयेंगी।

Subhadra Kumari Chauhan poem
Subhadra Kumari Chauhan poem

सुभद्रा कुमारी चौहान की कवितायेँ – Subhadra Kumari Chauhan Poems

Subhadra Kumari Chauhan Poems 1

“मेरा नया बचपन”

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

Subhadra Kumari Chauhan Poems 2

“ठुकरा दो या प्यार करो”

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।
सेवा में बहुमुल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं॥

धूमधाम से साजबाज से वे मंदिर में आते हैं।
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी।
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने को आयी॥

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं।
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं॥

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी।
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ! चली आयी॥

पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ।
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ॥

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो।
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो॥

Subhadra Kumari Chauhan Poems 3

जलियाँवाला बाग में बसंत”

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 4

“साध”

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।
वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।
कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।
सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।
सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।
हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।
रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।
दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।
तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।
निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 5

“यह कदम्ब का पेड़”

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥

Subhadra Kumari Chauhan Poems 6

“कोयल”

देखो कोयल काली है पर
मीठी है इसकी बोली
इसने ही तो कूक कूक कर
आमों में मिश्री घोली
कोयल कोयल सच बतलाना
क्या संदेसा लायी हो
बहुत दिनों के बाद आज फिर
इस डाली पर आई हो
क्या गाती हो किसे बुलाती
बतला दो कोयल रानी
प्यासी धरती देख मांगती
हो क्या मेघों से पानी?
कोयल यह मिठास क्या तुमने
अपनी माँ से पायी है?
माँ ने ही क्या तुमको मीठी
बोली यह सिखलायी है?
डाल डाल पर उड़ना गाना
जिसने तुम्हें सिखाया है
सबसे मीठे मीठे बोलो
यह भी तुम्हें बताया है
बहुत भली हो तुमने माँ की
बात सदा ही है मानी
इसीलिये तो तुम कहलाती
हो सब चिड़ियों की रानी

Subhadra Kumari Chauhan Poems 7

“पानी और धूप”

अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।
सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया
अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
बुला लिया कहकर आजा।
ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं
बादल हैं किसके काका
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।
बिजली के आँगन में अम्‍माँ
चलती है कितनी तलवार
कैसी चमक रही है फिर भी
क्‍यों खाली जाते हैं वार।
क्‍या अब तक तलवार चलाना
माँ वे सीख नहीं पाए
इसीलिए क्‍या आज सीखने
आसमान पर हैं आए।
एक बार भी माँ यदि मुझको
बिजली के घर जाने दो
उसके बच्‍चों को तलवार
चलाना सिखला आने दो।
खुश होकर तब बिजली देगी
मुझे चमकती सी तलवार
तब माँ कर न कोई सकेगा
अपने ऊपर अत्‍याचार।
पुलिसमैन अपने काका को
फिर न पकड़ने आएँगे
देखेंगे तलवार दूर से ही
वे सब डर जाएँगे।
अगर चाहती हो माँ काका
जाएँ अब न जेलखाना
तो फिर बिजली के घर मुझको
तुम जल्‍दी से पहुँचाना।
काका जेल न जाएँगे अब
तूझे मँगा दूँगी तलवार
पर बिजली के घर जाने का
अब मत करना कभी विचार।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 8

“वीरों का कैसा हो वसंत”

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत
भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत
गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत
कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत
हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत
भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

Subhadra Kumari Chauhan Poems 9

“खिलौनेवाला”

वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।
कई तरह के सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया है।
हरा-हरा तोता पिंजड़े में
गेंद एक पैसे वाली
छोटी सी मोटर गाड़ी है
सर-सर-सर चलने वाली।
सीटी भी है कई तरह की
कई तरह के सुंदर खेल
चाभी भर देने से भक-भक
करती चलने वाली रेल।
गुड़िया भी है बहुत भली-सी
पहने कानों में बाली
छोटा-सा ‘टी सेट’ है
छोटे-छोटे हैं लोटा थाली।
छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं
हैं छोटी-छोटी तलवार
नए खिलौने ले लो भैया
ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।
मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है
मोहन ने मोटर गाड़ी
मचल-मचल सरला करती है
माँ ने लेने को साड़ी
कभी खिलौनेवाला भी माँ
क्‍या साड़ी ले आता है।
साड़ी तो वह कपड़े वाला
कभी-कभी दे जाता है
अम्‍मा तुमने तो लाकर के
मुझे दे दिए पैसे चार
कौन खिलौने लेता हूँ मैं
तुम भी मन में करो विचार।
तुम सोचोगी मैं ले लूँगा।
तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल
पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा
ये तो हैं बच्‍चों के खेल।
मैं तो तलवार खरीदूँगा माँ
या मैं लूँगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारुँगा राम समान।
तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मैं मार भगाऊँगा
यों ही कुछ दिन करते-करते
रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।
यही रहूँगा कौशल्‍या मैं
तुमको यही बनाऊँगा।
तुम कह दोगी वन जाने को
हँसते-हँसते जाऊँगा।
पर माँ, बिना तुम्‍हारे वन में
मैं कैसे रह पाऊँगा।
दिन भर घूमूँगा जंगल में
लौट कहाँ पर आऊँगा।
किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा
तो कौन मना लेगा
कौन प्‍यार से बिठा गोद में
मनचाही चींजे़ देगा।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 10

“उल्लास”

शैशव के सुन्दर प्रभात का
मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में
जीवन का हुलास देखा।।
जग-झंझा-झकोर में
आशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का
क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।।
जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आयी।
जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आयी।।
अरिदल की पहिचान कराने
नहीं घृणा आने पायी।
नहीं अशान्ति हृदय तक अपनी
भीषणता लाने पायी।।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 11

“झिलमिल तारे”

कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं
झिलमिल-झिलमिल तारे?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम
चमक रहे मन मारे।।
अपलक आँखों से कह दो
किस ओर निहारा करते?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी
मुक्तावलि वारा करते?
करते हो अमिट प्रतीक्षा,
तुम कभी न विचलित होते।
नीरव रजनी अंचल में
तुम कभी न छिप कर सोते।।
जब निशा प्रिया से मिलने,
दिनकर निवेश में जाते।
नभ के सूने आँगन में
तुम धीरे-धीरे आते।।
विधुरा से कह दो मन की,
लज्जा की जाली खोलो।
क्या तुम भी विरह विकल हो,
हे तारे कुछ तो बोलो।
मैं भी वियोगिनी मुझसे
फिर कैसी लज्जा प्यारे?
कह दो अपनी बीती को
हे झिलमिल-झिलमिल तारे!

Subhadra Kumari Chauhan Poems 12

“मधुमय प्याली”

रीती होती जाती थी
जीवन की मधुमय प्याली।
फीकी पड़ती जाती थी
मेरे यौवन की लाली।।
हँस-हँस कर यहाँ निराशा
थी अपने खेल दिखाती।
धुंधली रेखा आशा की
पैरों से मसल मिटाती।।
युग-युग-सी बीत रही थीं
मेरे जीवन की घड़ियाँ।
सुलझाये नहीं सुलझती
उलझे भावों की लड़ियाँ।
जाने इस समय कहाँ से
ये चुपके-चुपके आए।
सब रोम-रोम में मेरे
ये बन कर प्राण समाए।
मैं उन्हें भूलने जाती
ये पलकों में छिपे रहते।
मैं दूर भागती उनसे
ये छाया बन कर रहते।
विधु के प्रकाश में जैसे
तारावलियाँ घुल जातीं।
वालारुण की आभा से
अगणित कलियाँ खुल जातीं।।
आओ हम उसी तरह से
सब भेद भूल कर अपना।
मिल जाएँ मधु बरसायें
जीवन दो दिन का सपना।।
फिर छलक उठी है मेरे
जीवन की मधुमय प्याली।
आलोक प्राप्त कर उनका
चमकी यौवन की लाली।।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 13

“मेरा जीवन”

मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।
मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रिडा।
जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।
सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 14

“झाँसी की रानी की समाधि पर”

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |
जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||
यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |
अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||
यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी |
उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी |
सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी |
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी |
बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से |
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से ||
रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी |
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी ||
इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते |
उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते ||
पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी |
स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी ||
बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी |
खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी ||
यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की |
अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

Subhadra Kumari Chauhan Poems 15

“अनोखा दान”

अपने बिखरे भावों का मैं
गूँथ अटपटा सा यह हार।
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
अपने हिय का संचित प्यार।

डर था कहीं उपस्थिति मेरी,
उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा
मेरे इन भावों का मूल्य?

संकोचों में डूबी मैं जब
पहुँची उनके आँगन में
कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।

किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला
तुमने मुझे अहो मतिमान!

मैं अपने झीने आँचल में
इस अपार करुणा का भार
कैसे भला सँभाल सकूँगी
उनका वह स्नेह अपार।

लख महानता उनकी पल-पल
देख रही हूँ अपनी ओर
मेरे लिए बहुत थी केवल
उनकी तो करुणा की कोर।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 16

“इसका रोना”

तुम कहते हो – मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है |
मैं कहती हूँ – इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ||
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे |
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे || 1 ||
ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो |
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ||
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है |
छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है || 2 ||
हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है |
पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है ||
जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है |
छुटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है || 3 ||
मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है |
जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है ||
मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में |
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में || 4 ||
मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ |
वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ ||
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान |
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान || 5 ||

Subhadra Kumari Chauhan Poems 17

“उपेक्षा”

इस तरह उपेक्षा मेरी,
क्यों करते हो मतवाले!
आशा के कितने अंकुर,
मैंने हैं उर में पाले।

विश्वास-वारि से उनको,
मैंने है सींच बढ़ाए।
निर्मल निकुंज में मन के,
रहती हूँ सदा छिपाए।

मेरी साँसों की लू से
कुछ आँच न उनमें आए।
मेरे अंतर की ज्वाला
उनको न कभी झुलसाए।

कितने प्रयत्न से उनको,
मैं हृदय-नीड़ में अपने
बढ़ते लख खुश होती थी,
देखा करती थी सपने।

इस भांति उपेक्षा मेरी
करके मेरी अवहेला
तुमने आशा की कलियाँ
मसलीं खिलने की बेला।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 18

“नीम”

सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥
हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है॥
नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।
कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली॥
तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।
तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी॥
है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।
ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा॥
तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा॥
तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।
इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै॥
प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।
जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो॥
तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।
निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो॥

Subhadra Kumari Chauhan Poems 19

“तुम”

जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो,
है जीवन में जीवन।
कोई नहीं छीन सकता
तुमको मुझसे मेरे धन।

आओ मेरे हृदय-कुंज में
निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी
मैं अपने अंतर का द्वार।

नहीं लांछना की लपटें
प्रिय तुम तक जाने पाएँगीं।
पीड़ित करने तुम्हें
वेदनाएं न वहाँ आएँगीं।

अपने उच्छ्वासों से मिश्रित
कर आँसू की बूँद।
शीतल कर दूँगी तुम प्रियतम
सोना आँखें मूँद।

जगने पर पीना छक-छककर
मेरी मदिरा की प्याली।
एक बूँद भी शेष
न रहने देना करना खाली।

नशा उतर जाए फिर भी
बाकी रह जाए खुमारी।
रह जाए लाली आँखों में
स्मृतियाँ प्यारी-प्यारी।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 20

“मुरझाया फूल”

यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरने वाली इसकी
पंखड़ियाँ बिखराना मत॥
गुजरो अगर पास से इसके
इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
देखो, इसे रुलाना मत॥
अगर हो सके तो ठंडी
बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!

Subhadra Kumari Chauhan Poems 21

“बालिका का परिचय”

यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली
शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली

दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली
उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली

सुधाधार यह नीरस दिल की, मस्ती मगन तपस्वी की
जीवित ज्योति नष्ट नयनों की, सच्ची लगन मनस्वी की

बीते हुए बालपन की यह, क्रीड़ापूर्ण वाटिका है
वही मचलना, वही किलकना, हँसती हुई नाटिका है

मेरा मंदिर,मेरी मसजिद, काबा काशी यह मेरी
पूजा पाठ, ध्यान, जप, तप, है घट-घट वासी यह मेरी

कृष्णचन्द्र की क्रीड़ाओं को अपने आंगन में देखो
कौशल्या के मातृ-मोद को, अपने ही मन में देखो

प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
जीव-दया जिनवर गौतम की,आओ देखो इसके पास

परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दूँ इसका
वही जान सकता है इसको, माता का दिल है जिसका

Subhadra Kumari Chauhan Poems 22

“चलते समय”

तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो!
’जा…’ कहते रुकती है जबान
किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!
सेवा करना था जहाँ मुझे
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला
बलि होकर जहाँ चुकाना था॥
मैं सदा रूठती ही आई,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना॥

Subhadra Kumari Chauhan Poems 23

“राखी”

भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज ।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज ।।

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ ।
भरत – भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ ।।

वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान ।
पढ़ते – पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान ।।

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई ।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी – बन्द – शत्रु – भाई ।।

किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही

बँधकर यह रह जाती है ।।

देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाल ।।

हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज ।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज ।।

यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अंकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे ?

बहिने कई सिसकती हैं हा
सिसक न उनकी मिट पाई ।
लाज गँवाई, गाली पाई
तिस पर गोली भी खाई ।।

डर है कही न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा ।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा ।।

बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे
भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा-
करने दौड़े आओगे।

यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो ।
आकर भैया, बहिन ‘सुभद्रा’-
के कष्टों का भार हरो ।।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 24

“फूल के प्रति”

डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं है सुमन कुंज में अभी
इसी से है तेरा सम्मान॥
मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
नहीं आवेंगे तेरे पास॥
सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व
डाल पर के मुरझाए फूल॥

Subhadra Kumari Chauhan Poems 25

“रामायण की कथा”

आज नहीं रुक सकता अम्मां
जाऊंगा मैं बाहर
रामायण की कथा हो रही
होगी सरला के घर ।

मेरे ही आगे उसके घर
आया था हलवाई
पूजा में प्रसाद रखने को
वह दे गया मिठाई ।

पूजा हो जाने पर बंटता
है प्रसाद मनमाना
चाहो तो प्रसाद लेने को
मां तुम भी आ जाना ।

क्या कहती हो अभी धूप है
अभी न बाहर जाऊं

यह क्या मां, जब अभी
जा रहे थे काका जी बाहर
तब भी तो थी धूप गए थे
वे भी तो नंगे सर ।

उन्हें नहीं रोका था तुमने
मुझे रोकती जातीं
यही तुम्हारी बात समझ में
कभी न मेरे आती ।

वे किसलिए कचहरी में मां
रोज धूप में जाते
कुछ भी उन्हें न कहतीं वे तो
बहुत शाम को आते ।

मैं जब कभी काम पड़ने पर
भी हूँ बाहर जाता
नहीं शाम भी होने पाती
जल्द लौट कर आता ।

तब भी मुझको रोका करतीं
मां तुम कितनी भोली
नहीं खेलने जाता हूँ मैं
गुल्ली डंडा गोली ।

काका जी की तरह न अम्मां
देर लगाऊंगा मैं
कथा हुई फिर क्या, प्रसाद
लेकर आ जाऊँगा मैं ।

तो घंटा बज उठा, हो गई
अम्मां मुझको देरी
वह देखो, आ रही बुलाने
मुझको सरला मेरी ।

Subhadra Kumari Chauhan Poems 26

“कुट्टी”

मोहन से तो आज हो गई
है मेरी कुट्टी अम्मां ।
अच्छा है शाला जाने से
मिली मुझे छुट्टी अम्मां ।।

रोज सवेरे आकर मुझको
वह शाला ले जाता था ।
दस बजते हैं इसी समय तो
यह अपने घर आता था ।।

मोहन बुरा नहीं है अम्मां
मैं उसको करता हूं प्यार ।
फिर भी जाने क्यों हो जाया
करती है उससे तकरार ।।

यह क्या ! कुट्टी होने पर भी
वह आ रहा यहां मोहन ।
आते उसको देख विजयसिंह
हुए वहुत खुश मन ही मन ।।

बोले-कुट्टी तो है मोहन
फिर तुम कैसे आए हो
फूल देख उसके बस्ते में
पूछा यह क्या लाए हो ।।

चलो दोस्ती कर लें फिर से
दे दो हम को भी कुछ फूल।
हमे खिला दो खाना अम्माँ
अब हम जाएँगे स्कूल ।।

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