वीर कुंवर सिंह- एक ऐसे योद्धा जिनकी बहादुरी के आगे पानी भरते थे अंग्रेज – Veer Kunwar Singh History in Hindi

वीर कुंवर सिंह, भारत के एक महान योद्धा और सच्चे वीर सपूत थे, जिन्होंने 80 साल की उम्र में, अंग्रेजों को अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर यह एहसास दिलवा दिया था कि वे भारत में ज्यादा दिन तक राज नहीं कर पाएंगे।

दरअसल, गुलाम भारत को आजाद करवाने की पहली लड़ाई के दौरान बाबू वीर कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh) ने 23 अप्रैल, 1857 को अपने अदम्य साहस और बहादुरी से भोजपुर (आरा) जिले के जगदीशपुर में अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे और जगदीशपुर में ब्रिटिश झंडे यूनियन को हटाकर अपने अपना झंडा फहराया था, इसलिए 23 अप्रैल के दिन को उनकी जयंती और शौर्यदिवस के रुप में मनाया जाता है।

बाबू वीर कुंवर सिंह को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के महानायक के तौर पर भी जाना जाता है। भारत के इस सूरवीर ने 1857 की क्रांति के दौरान रीवा के सभी जमींदारों को इकट्ठा कर उनके अंदर अंग्रेजों के खिलाफ रोष की ज्वाला भड़काई थी और उन्हें युद्ध के लिए तैयार कर विजय हासिल की थी।

आजादी पाने की पहली लड़ाई के दौरान जब नाना साहब, तात्या टोपे, महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसे महान शूरवीर अपने-अपने राज्यों को अंग्रेजों के कब्जे से बचाने के लिए युद्ध कर रहे थे, उसी दौरान बाबू वीर कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh) ने भी ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ रहे बिहार के दानापुर के क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर अपनी कुशल सैन्य का परिचय दिया था। आइए जानते हैं वीर कुंवर सिंह के बारे में –

Veer Kunwar Singh

वीर कुंवर सिंह –  एक ऐसे योद्धा जिनकी बहादुरी के आगे पानी भरते थे अंग्रेज – Veer Kunwar Singh History in Hindi

पूरा नाम (Name)बाबू वीर कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh)
जन्म (Birthday) नवंबर, साल 1777, जगदीशपुर, भोजपुर जिला, बिहार
पिता (Father Name)बाबू साहबजादा सिंह, शासक
माता (Mother Name)रानी पंचरतन देवी
मृत्यु (Death)26 अप्रैल 1858

वीर कुंवर सिंह का शुरुआती जीवन और विवाह – Veer Kunwar Singh Information in Hindi

1857 की क्रांति के इस महान योद्धा और सूरवीर ने नवंबर साल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में एक उज्जैनिया राजपूत घराने में जन्म लिया था। उनके पिता का नाम बाबू साहबजादा सिंह था, जो कि भोजपुर जिले के उज्जैनिया राजपूत वंश के रियासतदार शासक थे और मां  रानी पंचरतन एक घरेलू गृहिणी थी।

वहीं साल 1826 में पिता की मौत के बाद कुंवर सिंह को जगदीशपुर के तालुकदार बनाया गया, जबकि उनके दोनों भाई हरे कृष्णा और अमर सिंह उनके सिपहसालार बनें, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध उनका साथ दिया था। 

इसके अलावा उनके ही परिवार के गजराज सिंह, उमराव सिंह और बाबू उदवंत सिंह ने भी भारत की पहली आजादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी।

वहीं राजपूत राजघराने में पैदा होने की वजह से बाबू कुंवर सिंह के  पास काफी जागीर थी, वे जाने-माने बड़े जमींदार थे, हालांकि बाद में उनकी जागीर  ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी नीतियों के चलते छीन ली गई थी, जिससे उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ रोष पैदा हो गया था।

वहीं कुंवर सिंह के अंदर बचपन से ही देश को आजाद करवाने की आग प्रज्वलित थी, इसी वजह से उनका मन शुरु से ही शौर्य युक्त कामों में ज्यादा लगता था।

कुंवर सिंह का विवाह मेवारी के सिसोदिया राजपूताना शासक फतेह नारायण सिंह की बेटी के साथ हुआ था, जो कि बिहार जिले के बडे़ और समृद्ध जमींदार और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के वंशज भी थे। 

कुंवर सिंह ने अंग्रेजों की विलय नीति का किया था विरोध:

साल 1848 – 49 में जब क्रूर अंग्रेजी शासकों की विलय नीति से बड़े-बड़े शासकों के अंदर डर जाग गया था। उस समय कुंवर वीर सिंह, अंग्रेजों के खिलाफ भड़ उठे। वहीं इसके बाद अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए हिंदु और मुसलमान दोनों एक जुट हो गए।

दरअसल, अंग्रेजों की अत्याचारी नीतियों के कारण किसानों के अंदर भी रोष पैदा हो गया था। वहीं इस दौरान सभी राज्यों के राजा अंग्रेजों के खिलाफ विरोध कर रहे थे, इसी वक्त बिहार के दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर ने अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया।

इसके साथ ही इसी दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति के साथ इसका नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को उनके आगे घुटने टेंकने को मजबूर कर दिया।

उम्र के आखिरी पड़ाव में मनवाया अपनी बहादुरी और शौर्य लोहा:

वहीं 1857 में जब भारत के सभी हिस्सों में लोग अंग्रेजों के खिलाफ विरोध कर रहे थे, उस समय बाबू कुंवर सिंह अपने उम्र के आखिरी पड़ाव में थे, उनकी उम्र उस समय 80 साल थी, तभी ब्रिटिशों के खिलाफ नेतृत्व करने का उन्हें संदेश आया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया, क्योंकि उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ इतना गुस्सा भरा था और भारत को आजादी दिलवाने की इतनी छटपटाहट थी कि, इस उम्र में भी उन्होंने अपने अद्भुद साहस, धैर्य और वीर पराक्रम के साथ अंग्रेजों का डटकर सामना किया।

यही नहीं उन्होंने अंग्रेजों के कार्यालयों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया, सरकारी खजाने को लूट लिया, यहां तक की जगदीशपुर में अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।

वहीं इसके बाद जब वे अपनी पलटन के साथ गंगा नदी पार कर रहे थे तब इस दौरान चुपचाप ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों उन्हे घेर लिया।  और अंग्रेजी सैनिकों ने गोलीबारी की जिससे कुंवर सिंह के एक हाथ में अंग्रेजों की गोली लग गई, जिसे उन्होंने अपना अपमान समझा और फिर तलवार से अपनी एक बांह काट कर गंगा नदी को समर्पित कर दी और एक हाथ से ही दुश्मनों का सामना किया।

हालांकि इस लड़ाई में वे बुरी तरह से घायल हो गए थे, जिसके बाद उनकी सेहत काफी खराब रहने लगी थी, जिसके चलते उन्होंने 26 अप्रैल 1858 को अपनी अंतिम सांस ली।

इस तरह कुंवर सिंह ने आजादी की पहली लड़ाई में अपने शौर्य की महागाथा लिखी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में दिए गए उनके त्याग और बलिदान को हमेशा याद किया जाएगा।

भारत के इस महान सूरवीर को शत-शत नमन !

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