दयानंद सरस्वती जी आर्यसमाज के संस्थापक थे, जिन्हें आधुनिक पुनर्जागरण के प्रणेता भी कहा जाता है। इन्होंने भारतीय समाज में कई सुधार किेए। यही नहीं इन्होंने एक सच्चे देशभक्त की तरह अपने देश के लिए कई संघर्ष किए और स्वराज्य का संदेश दिया जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है का नारा दिया।
इसके अलावा इन्होंने भारत के राजनीतिक दर्शन और संस्कृति के विकास के लिए भी काफी कोशिश की। यह एक अच्छे मार्गदर्शक भी थे और इन्होंने अपने नेक कामों से समाज को नई दिशा एवं ऊर्जा दी। स्वामी दयानंद जी के महान विचारों से भारत के महान दिग्गज लोग भी प्रभावित हुए।
आपको बता दें कि स्वामी दयानंद जी ने अपना पूरा जीवन राष्ट्रहित के उत्थान में और समाज में प्रचलित अंधविश्वासों और कुरीतियों को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। महान समाज सुधारक स्वामी जी ने अपनी प्रभावी और ओजस्वी विचारों से समाज में नव चेतना का संचार किया।
इसके साथ ही उन्होंने हिन्दू धर्म के कई अनुष्ठानों के खिलाफ भी प्रचार किया। उन अनुष्ठानो के खिलाफ प्रचार करने की कुछ मुख्य वजह थी – मूर्ति पूजा, जाति भेदभाव, पशु बलि, और महिलाओं को वेदों को पढ़ने की अनुमति ना देना।
महान समाज सुधारक और राजनीतिक विचार धारा के व्यक्तित्व स्वामी दयानद सरस्वती जी के उच्च विचारों और कोशिश की वजह से ही भारतीय शिक्षा प्रणाली का पुनरुद्धार हुआ, जिसमें एक ही छत के नीचे अलग-अलग स्तर और जाति के छात्रों को लाया गया, जिसे आज हम कक्षा के नाम से जानते हैं। वहीं एक स्वदेशी रुख अपना कर उन्होंने हमेशा एक नया समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक दौर की भी शुरुआत की थी। ऐसे महान व्यक्तित्व के जीवन के बारे में आज हम आपको अपने इस लेख में बताएंगे।
स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी और इतिहास | Swami Dayanand Saraswati in Hindi
नाम (Name) | महर्षि दयानंद सरस्वतीं |
वास्तविक नाम (Real Name) | मूल शंकर तिवारी |
जन्म (Birthday) | 12 फरवरी 1824, टंकारा, गुजरात |
पिता (Father Name) | करशनजी लालजी तिवारी |
माता (Mother Name) | यशोदाबाई |
शिक्षा (Education) | वैदिक ज्ञान |
गुरु | स्वामी विरजानंद |
मृत्यु (Death) | 30 अक्टूबर 1883 |
उपलब्धि (Awards) | आर्य समाज के संस्थापक। ‘स्वराज्य’ का नारा देने वाले पहले व्यक्ति, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया, रुढ़िवादी सोच को बदला और कई कुरीतियों को मिटाने की कोशिश की। |
प्रारंभिक जीवन –
एक सच्चे देशभक्त और महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में एक समृद्ध ब्राहमण परिवार में जन्मे थे।
जिनके बचपन का नाम मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी था। और उनके पिता जी का नाम करशनजी लालजी तिवारी था। जो कि एक समृद्ध नौकरी पेशा थे, उनके पिता टैक्स-कलेक्टर होने के साथ-साथ एक अमीर समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। इसके साथ ही वे शैवमत के कट्टर अनुयायी भी थे।
दयानंद जी की माता का नाम यशोदाबाई था, जो कि एक घरेलू महिला थी। आपको बता दें कि स्वामी दयानंद जी के एक संपन्न परिवार में जन्मे थे, इसलिए उनका बचपन ऐश और आराम के साथ बीता।
स्वानी दयानंद जी बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति थे। जिन्होंने महज 2 साल की आयु में ही गायत्री मंत्र का शुद्ध उच्चारण करना सीख लिया था।
इसके साथ ही आपको बता दें कि स्वामी दयानंद जी के परिवार में पूजा-पाठ और शिव-भक्ति का धार्मिक माहौल था। जिसका असर स्वामी दयानंद जी पर भी पड़ा और धीरे-धीरे उनके मन में शिव भगवान के प्रति गहरी श्रद्धा पैदा हो गई।
आगे चलकर एक पंडित बनने के लिए स्वामी दयानंद जी ने बचपन से ही वेदों-शास्त्रों, धार्मिक पुस्तकों और संस्कृत भाषा का मन लगाकर अध्यन किया।
वहीं उनके जीवन में एक घटना हुई, जिन्होंने हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए मजबूर कर दिया। फिर इसके बाद उनकी जिंदगी पूरी तरह ही बदल गई।
वो घटना, जिसके बाद बदल गई स्वामी जी की जिंदगी –
स्वामी जी के पिता की शंकर भगवान में गहरी आस्था जी इसलिए अक्सर वे धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते थे। वहीं स्वामी दयानंद जी भी अपने पिता के साथ इन पूजा-पाठ में शामिल होते थे।
वहीं एक बार जब शिवरात्रि के दिन स्वामी जी के पिता ने उन्हें शिवरात्रि के दिन का महत्व बताते हुए उनसे उपवास रखने के लिए कहा, जिसके बाद स्वामी जी ने व्रत रखा और रात्रि जागरण के लिए वे शिव मंदिर में ही पालकी लगाकर बैठ गए।
इस दौरान स्वामी जी ने देखा कि चूहों का झुंड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए है और सारा प्रसाद खा रहे हैं। तब स्वामी दयानंद जी के बालमन में सवाल उठा कि भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला है जब ईश्वर अपने भोग की रक्षा नहीं कर सकते हैं तो वह हमारी रक्षा कैसे करेंगे।
इस घटना का स्वामी दयानंद जी के जीवन में गहरा प्रभाव पड़ा और उनका मूर्ति पूजा से विश्वास उठ गया।
21 साल की आयु में स्वामी जी ने किया घर का त्याग:
वहीं इस घटना बारे में उन्होंने अपने पिता से भी बहस की और तर्क दिया कि हमें असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए। और फिर उन्होंने आगे चलकर जीवन-मृत्यु के चक्र की सच्चाई जानने के लिए महज 21 साल की उम्र में 1846 में उन्होंने मोह-माया त्यागकर संयासी बनने का फैसला लिया और अपना घर छोड़ दिया।
उनमें इस सच्चाई को जानने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि जिसकी वजह से उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था। इसलिए इन्होंने अपने विवाह के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया।
वहीं इसको लेकर इनके और पिता के बीच कई बार बहस भी हुई, लेकिन स्वामी जी के दृढ़ फैसले के आगे इनके पिता को भी झुकना पड़ा।
गुरु श्री विरजानंद बने गुरु –
इस तरह वे अध्यात्मिक अध्ययन के लिए मथुरा में स्वामी विरजानंद जी से मिले और जहां स्वामी जी ने उनसे योग विद्या एवं शास्त्र और आर्य ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया।
ज्ञान प्राप्ति के बाद जब गुरु दक्षिणा देने की बात आई तब उनके गुरु विरजानंद जी ने गुरुदक्षिणा के रुप में उनसे समाज में फैली कुरीति, अन्याय, और अत्याचार के खिलाफ काम करने और आम लोगों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए कहा।
इस तरह उनके गुरु ने उन्हें समाज के कल्याण का रास्ता बता दिया जिसके बाद आगे चलकर उन्हें समाज में कई महान काम किए और अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया यही नहीं देश को आर्य भाषा अर्थात हिंदी के प्रति जागरूक किया, जिसकी वजह से आज भी हम स्वामी दयानंद सरस्वती जी को याद करते हैं।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग:
ज्ञान प्राप्ति के बाद स्वामी दयानंद जी ने पूरे देश का भ्रमण किया, तब उन्होंने देखा कि ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों पर जुल्म ढाह रही थी, बेकसूरों पर अत्याचार कर रही थी, जिसके बाद दयानंद सरस्वती जी ने सबसे पहले अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बोलना शुरु कर दिया और लोगों को अंग्रजों के अत्याचार के खिलाफ जागरूक करना शुरु कर दिया।
वहीं इस दौरान उन्होंने यह भी देखा कि लोगों में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं, जिसे उचित मार्गदर्शन की जरूरत है। जिसके बाद उन्होंने पूर्ण स्वराज हासिल करने के लिए लोगों को इकट्ठा करना शुरु कर दिया।
वहीं उनके इस काम से उनसे भारत के महान सपूत तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा,हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि भी काफी प्रभावित थे, यही नहीं इस महान दिग्गजों ने भी स्वामी जी के विचारों का अनुसरण किया और उनके बताए गए मार्ग पर चलने लगे। इसके अलावा समाज-सुधार के संबंध में गांधी जी ने भी उनके कई कार्यक्रमों को स्वीकार किया।
वहीं इस दौरान उन्होंने लोगों को जागरूक कर सभी को संदेश वाहक बनाया। जिससे लोगों के बीच आपसी रिश्ते मजबूत हो और सभी लोग एकजुट होकर रह सके।
यही नहीं इसके लिए उन्होंने रोटी और कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना शुरु किया। सबसे पहले स्वामी जी ने साधु-संतों को जोड़ा, जिससे उनके माध्यम से आमजन को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके।
लेकिन 1857 की क्रांति में कोई खास सफलता नहीं मिली, लेकिन फिर भी स्वामी जी निराश नहीं हुए और उन्होंने लोगों को यह बात समझाई कि कई सालों की गुलामी सिर्फ एक संघर्ष से नहीं मिल सकती है और इसके लिए भी समय लगता है।
इसके बाद उन्होंने लोगों से यह भी कहा कि उन्हें दुखी नहीं होना चाहिए बल्कि खुश होना चाहिए क्योंकि आजादी की लड़ाई अब बड़े पैमाने पर शुरु हो गई है।
और उन्होंने लोगों से यह भी कहा कि लगातार संघर्ष किया जाए तो गुलामी के दंश से निजात मिल सकती है। अंग्रेजी हुकूमत का खात्मा किया जा सकेगा। इस तरह उन्होंने अपने ऐसे विचारों से लोगों में नई ऊर्जा का संचार किया और उनका हौसला नहीं डगमगाने दिया।
भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी दयानंद सरस्वती के योगदान को देखते हुए कहा था कि
“भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।”
वहीं 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो काम किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा।
इस तरह गुरु के मार्गदर्शन मिलने के बाद स्वामी जी ने समाज में सुधार किए, इसके साथ ही पूरे राष्ट्र का भ्रमण किया और वैदिक शास्त्रों के ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया।
इस दौरान उन्हें कई कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। कई बार अपमान भी सहना पड़ा लेकिन उन्होंने अपने मार्ग को नहीं बदला। और समाज में फैली बुराइयों का जमकर विरोध किया।
इसके अलावा इन्होंने ईसाई, मुस्लिम धर्म के अलावा सनातन धर्म का भी खुलकर विरोध किया और इन्होंने वेदों में निहित ज्ञान को ही सर्वोपरि एवं प्रमाणित माना और इसी मूल भाव के साथ इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की।
आर्य समाज की स्थापना –
परोपकार, जन सेवा, ज्ञान एवं कर्म के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए महान समाज सुधारक दयानंद सरस्वती जी ने गुड़ी पड़वा के दिन 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। वहीं स्वामी जी का यह कल्याणकारी ऐतिहासिक कदम मील का पत्थर साबित हुआ।
आपको बता दें कि इसका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक और सामाजिक उन्नति करना था। ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी जिससे कई महान विद्धान प्रेरित हुए, तो दूसरी तरफ स्वामी जी के आलोचक भी कम नहीं थे, कई लोगों ने इसका विरोध भी किया लेकिन दयानंद सरस्वती जी के तार्किक ज्ञान के आगे वे टिक नहीं सके और बड़े-बड़े विद्दानों और पंडितों को भी स्वामी जी के आगे सिर झुकाना पड़ा।
इसके अलावा उन्होंने विद्धानों को वेदों की महत्वता के बारे में समझाया। दयानंद सरस्वती ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को दोबारा हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। वहीं साल 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी। जिससे हिन्दू समाज में जागरूकता फैली।
जिनपर महर्षि दयानंद सरस्वती का बहोत प्रभाव पड़ा, और उनके अनुयायियों की सूचि में मॅडम कामा, पंडित लेख राम, स्वामी श्रद्धानंद, पंडित गुरु दत्त विद्यार्थी, श्याम कृष्णन वर्मा (जिन्होंने इंग्लैंड में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का घर निर्मित किया था), विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदन लाल धींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, महादेव गोविन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय और कई लोग शामिल थे।
समाज के कल्याण के लिए अपनी आवाज की बुलंद और पढ़ाया एकता का पाठ:
महर्षि दयानंद सरस्वती जी एक महान समाज सुधारक थे, इसलिए उन्होंने समाज में फैली बुराइयां जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह को दूर किया और अंधविश्वास के खिलाफ अपनी आवाज उठाई और एकता का संदेश दिया। इसके साथ ही उन्होंने नारी शक्ति का भी समर्थन किया।
- बाल-विवाह का विरोध:
जब दयानंद सरस्वती समाज में सुधार करने का काम कर रहे थे तो उस समय समाज में बाल-विवाह का प्रथा व्याप्त थी और ज्यादातर लोग कम उम्र में ही अपने बच्चों की शादी कर देते थे, इससे न सिर्फ लड़कियों को शारीरिक कष्ट होता था बल्कि उनका शोषण भी किया जाता था।
जिसको देखकर स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगों को इस प्रथा के खिलाफ जगाया और बताया कि शास्त्रज्ञान के मुताबिक मानव जीवन में प्रथम 25 साल अविवाहित रहकर ब्रह्राचर्य का पालन करना चाहिए और उनके अनुसार बाल-विवाह एक कुप्रथा है।
इसके साथ ही आपको यह भी बता दें कि स्वामी जी ने यह भी कहा था कि अगर बाल विवाह होता है तो मनुष्य का शरीर निर्बल हो जाता है औऱ निर्बलता की वजह से उसकी समय से पहले मौत हो जाती है।
- सती प्रथा का विरोध:
स्वामी दयानंद जी ने समाज में फैली अमानवीय कुप्रथा (सती प्रथा ) का भी जमकर विरोध किया उस समय पति की मौत के बाद पत्नी को उसकी चिता के साथ जीवित प्राण त्यागने की अमानवीय कुप्रथा थी। जिसके खिलाफ दयानंद जी ने अपनी आवाद बुलंद की सम्पूर्ण मानव जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया और परोपकार का संदेश दिया।
- विधवा पुनर्विवाह को लेकर लोगों को किया जागरूक:
आज भी देश के पिछड़े इलाकों में विधवा पुर्नविवाह को लेकर लोगों की सोच नहीं बदली है लेकिन उस समय तो पति की मौत के बाद विधवा स्त्रियों को समाज में कई तरह की पीड़ा सहनी पड़ती थी।
यहां तक कि उन्हें प्राथमिक सामान्य मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता था जिसका स्वामी जी ने घोर विरोध किया और विधवा स्त्रियों को दी जाने वाली अमानवीय पीड़ा की घोर निंदा की और नारियों के सह सम्मान पुर्नविवाह के लिए अपने विचार लोगों के सामने रखे और इसके लिए लोगों को जागरूक भी किया।
- पढ़ाया एकता का पाठ:
स्वामी दयानंद जी ने लोगों को एकजुट होने का संदेश दिया और इसके महत्व के बारे में बताया। स्वामी सभी धर्म के लोगों को आपस में भाई-चारे के साथ मिलजुल कर रहने के लिए प्रेरित करते थे। स्वामी दयानंद का मानना था कि आपसी लड़ाई का फायदा तीसरा लेता है।
इसलिए आपस में मिलजुल कर रहने की जरूरत है। इसीलिए स्वामी दयानंद सरस्वती का यह नारा था कि, सभी धर्म के अनुयायी एक ध्वज तले के नीचे एकत्रित हो जाएं ताकि आपसी गृहयुद्ध की स्थिति से बचा जा सके।
और देश में एकता की भावना बनी रहे। इसके लिए कई सभाओं का आयोजन भी किया।
- सभी वर्गों को समान अधिकार दिलाने के लिए उठाई आवाज:
स्वामी दयानंद सरस्वती जातिवाद और वर्णभेद की कुप्रथा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने सभी वर्गों के लोगों को समान अधिकार दिलवाने के लिए अपनी आवाज बुलंद की। स्वामी जी का मानना था कि चारों वर्ण केवल समाज को ठीक तरीके से चलाने के लिए अभिन्न हैं, जिसमें कोई भी छोटा या बड़ा नहीं है, सभी बराबर है।
- महिला शिक्षा, सुरक्षा और नारी सशक्तिकरण पर दिया जोर:
स्वामी दयानंद सरस्वती ने नारी शक्ति का समर्थन किया और महिलाओं की शिक्षा और सुरक्षा को लेकर अपनी आवाज उठाई। उनका मानना था की महिलाओं को पुरुष के बराबर के अधिकार मिलने चाहिए और समाज में महिलाओ को पुरुष के समकक्ष मानना चाहिए।
दर्शन के चार स्तंभ:
- कर्म सिद्धान्त
- पुनर्जन्म
- सन्यास
- ब्रह्मचर्य
मृत्यु –
साल 1883 में स्वामी दयानंद सरस्वती जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह के पास गए। इस दौरान स्वामी जी ने अपने महान विचारों से राजा को कई व्याख्यान भी सुनाए, जिससे राजा काफी प्रभावित हुए और उनका बहुत आदर सत्कार किया।
तब राजा यशवंत सिंह के संबंध एक नन्ही जान नाम की नर्तकी के साथ थे। जिसे देखकर स्वामी दयानंद जी ने राजा यशवंत सिंह जी को बड़ी विन्रमता से इस अनैतिक संबंध के गलत और आसामाजिक होने की बात समझायी और कहा कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन है ऐसे में ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
वहीं स्वामी जी के नैतिक ज्ञान से राजा की आंखे खुल गईं और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म कर दिए।
वहीं राजा से संबंध टूटने की वजह से नर्तकी नन्ही जान इस कदर नाराज़ हुई कि उसने स्वामी जी की जान ले ली।
क्रोधित नन्ही जान ने रसोईये के साथ मिल कर स्वामी दयानंद सरस्वती के भोजन में काँच के बारीक टुकड़े मिलवा दिए। उस भोजन को ग्रहण करने के बाद स्वामीजी की तबीयत खराब होने लगी। वहीं जांच पड़ताल होने पर रसोइये ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया और तब विराट हृदय वाले स्वामी दयानंद सरस्वती नें उसे भी क्षमा कर दिया।
इस घटना से स्वामी जी बच नहीं पाए। उन्हे इलाज के लिए 26 अक्टूबर के दिन अजमेर लाया गया। लेकिन 30 अक्टूबर के दिन उनकी मौत हो गई।
महान विचार –
- ये ‘शरीर’ ‘नश्वर’ है, हमे इस शरीर के जरीए सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है।
- वेदों मे वर्णीत सार का पान करने वाले ही ये जान सकते हैं कि ‘जिन्दगी’ का मूल बिन्दु क्या है।
- क्रोध का भोजन ‘विवेक’ है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योंकि ‘विवेक’ नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
- अहंकार’ एक मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाती है, जब वह ‘आत्मबल’ और ‘आत्मज्ञान’ को खो देता है।
- ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योंकि ये ‘मनुष्य’ को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।
- अगर ‘मनुष्य’ का मन ‘शाँन्त’ है, ‘चित्त’ प्रसन्न है, ह्रदय ‘हर्षित’ है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का ‘फल’ है।
- नुक्सान से निपटने में सबसे ज़रूरी चीज है उससे मिलने वाले सबक को ना भूलना। वो आपको सही मायने में विजेता बनाता है।
- निया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिये और आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।
- कोई मूल्य तब मूल्यवान है जब मूल्य का मूल्य स्वयं के लिए मूल्यवान हो।
- सबसे उच्च कोटि की सेवा ऐसे व्यक्ति की मदद करना है जो बदले में आपको धन्यवाद कहने में असमर्थ हो।
- आप दूसरों को बदलना चाहते हैं ताकि आप आज़ाद रह सकें। लेकिन, ये कभी ऐसे काम नहीं करता। दूसरों को स्वीकार करिए और आप मुक्त हैं।
- जो व्यक्ति सबसे कम ग्रहण करता है और सबसे अधिक योगदान देता है वह परिपक्कव है, क्योंकि जीने मेंही आत्म-विकास निहित है।
पुस्तकें और साहित्य –
महार्षि दयानंद जी न सिर्फ एक अच्छे समाज सुधारक थे बल्कि साहित्य के विद्धान भी थे और अपने उच्च विचारों से साहित्य में कई रचना की जिनका नाम नीचे लिखा गया है –
- सत्यार्थप्रकाश
- ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
- ऋग्वेद भाष्य
- यजुर्वेद भाष्य
- चतुर्वेदविषयसूची
- संस्कारविधि
- पंचमहायज्ञविधि
- आर्याभिविनय
- गोकरुणानिधि
- आर्योद्देश्यरत्नमाला
- भ्रान्तिनिवारण
- अष्टाध्यायीभाष्य
- वेदांगप्रकाश
- संस्कृतवाक्यप्रबोध
- व्यवहारभानु
स्वामी जी के नाम से शिक्षण संस्थान – Swami Dayanand Saraswati University
- रोहतक में महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय
- अजमेर में महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय
- जालंधर डीएवी विश्वविद्यालय
- DAV कॉलेज प्रबंध समिति के अंतर्गत 800 से अधिक स्कूलों का संचालन
इस तरह स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने समाज में न सिर्फ समाज में फैली बुराइयों को दूर किया बल्कि समाज के कल्याण के लिए भी कई काम किए और स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेकर लोगों में देश प्रेम की भावना जगाई।
स्वामीजी ने समाज के उन्होंने मानवतावाद, समानता, नारी विकास, एकता और भाईचारे की भावना को बल दिया। युगपुरुष स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन प्रेरणादायी है।
वहीं समाज में दिए गए उनके अमूल्य योगदान को कभी नहीं भूला जा सकता। इसके लिए देश उनका सदैव आभारी रहेगा।
ज्ञानी पंडित की टीम ऐसे महान शख्सियत को शत-शत नमन करती है।
Nice information
व्यवहार भानू के महर्षि दयानंद को धन्यवाद
उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे।
Pls 1868 ki history batye dayanad sarswati ki baat
30 अक्टूबर 1883 मे स्वामी दयानंद का विष deni ki karan देहांत हुवा