सूरदासजी के दोहे हिंदी अर्थ सहित | Surdas ke Dohe with Meaning In Hindi

Surdas ke Dohe with Meaning

श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहने वाले सूरदास जी भक्ति काल के सगुण धारा के महाकवि थे। सूरदास जी, को हिन्दी साहित्य की अच्छी जानकारी थी इसलिए उन्हें हिन्दी साहित्य का विद्धान माना जाता था।

सूरदास जी की रचनाओं में कृष्ण भक्ति का भाव उजागर होते हैं। वहीं उन्होंने अपनी रचनाओं में श्री कृष्ण की बाल लीलाओं और उनके सुंदर रूप  का इस तरह वर्णन किया है कि मानो उन्होंने खुद अपनी आंखों से नटखट कान्हा की लीलाओं को देखा हो।

जो एक बार भी सूरदास जी की रचनाओं को पढ़ता है वो कृष्ण की भक्ति में डूब जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री कृष्ण के रुप का वर्णन श्रृंगार और शांत रस में किया है।

सूरदास जी का कहना था कि श्री कृष्ण के प्रति आस्था और उनकी भक्ति ही मनुष्य को मोक्ष दिला सकती हैं। सूरदास जी की ब्रज भाषा में भी अच्छी पकड़ थी। वहीं बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप जैसे योद्धा भी सूरदास जी से काफी प्रभावित थे। आज हम आपको अपने इस लेख में महाकवि सूरदास जी के लिखे गए दोहे और उनके अर्थ – Surdas ke Dohe with Meaning के बारे में बताएंगे।

सूरदासजी के दोहे हिंदी अर्थ सहित – Surdas ke Dohe with Meaning

Surdas Ke Dohe
Surdas Ke Dohe

सूरदासजी का दोहा नंबर 1- Surdas ke Dohe 1

सूरदास जी ने इस दोहे में श्री कृष्ण की ब्रजनगरी के महत्व का वर्णन किया है। ब्रजनगरी में रह रहे लोगों को कवि ने धन्य बताया है क्योंकि ब्रज की धरती श्री कृष्ण से स्पर्श से सुशोभित हुई है इसके साथ ही उन्होंने श्री कृष्ण के प्रति अपनी भावनाओं को भी प्रकट किया है कि किस तरह उन्हें कान्हा की नगरी में शांति मिलती है और ब्रजवासियों के साथ रहने से  सुकुन का अनुभव होता है –

दोहा:

“मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृन्दावन की रेनु। नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु।।

मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन। चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु।।

इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनी के ऐनु। सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पब्रूच्छ सुरधेनु।।”

अर्थ:

राज सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं और अंधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उसी भूमि पर श्यामसुंदर का स्मरण करने से मन को परम शांति मिलती हैं।

सूरदास मन को प्रभोधित करते हुए कहते हैं की अरे मन! तू काहे इधर उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख की प्राप्ति होती हैं। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं।

ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्ममत्व की प्राप्ति होती हैं। सूरदास कहते हैं की ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्व प्रतिपादित किया हैं।

सारांश:

ब्रजनगरी को गोकुलनगरी और श्री कृष्ण की नगरी भी कहा जाता है। इसलिए कृष्ण भक्ति में लीन रहने वाले महाकवि ने ब्रज की नगरी के महत्व को बताया है अर्थात कवि ने इस पद से हमें यह सीख मिलती है कि हमें भी ब्रज की महिमा का महत्व समझना चाहिए और मन की शांति और सुकून के लिए ब्रज में बसना चाहिए और श्री कृष्ण का ध्यान करना चाहिए इसी से हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

सूरदासजी का दोहा नंबर 2- Surdas ke Dohe 2

कृष्ण भक्ति में लीन रहने वाले हिन्दी साहित्य के महामंडित कवि सूरदास जी ने इस पद में श्रीकृष्ण और राधा के पहले मिलन का वर्णन किया है। कवि ने भावपूर्वक दोनों की प्रेम भरी बातों को इस पद के माध्यम से बताया है कि किस प्रकार नंद के पुत्र श्री कृष्ण, राधा का पहली बार में ही अपनी बातों से मोहित कर लेते हैं और फिर राधा उनके प्रेम जाल में फंस जाती हैं  –

दोहा:

“बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी।।

काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी। सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी।।

तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी। सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी।।”

अर्थ:

सूरसागर से उध्दुत यह पद राग तोड़ी में बध्द है। राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा की हे गोरी! तुम कौन हो ? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो?

हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी की नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता हैं।

तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।

सांराश:

कवि ने इसमें नंद किशोर श्री कृष्ण और राधा मिलन का बहुत सुंदर तरीके से वर्णन किया है अर्थात जिस तरह श्री कृष्ण ने अपने तेज और आर्कषण से अतिसुंदर राधा का मन मोह लिया था वैसे ही हमें भी पहली ही मीटिंग में किसी दूसरे पर अपनी बातों से गहरा प्रभाव छोड़ना चाहिए।

सूरदासजी का दोहा नंबर 3 – Surdas ke Dohe 3

इस पद में महाकवि सूरदास जी ने यशोदा मैया को धन्य बताया है क्योंकि उन्हें श्री कृष्ण की माता बनने का अवसर प्राप्त हुआ और उन्होनें भगवान को अपनी कोक से जन्म दिया, कवि ने इस दोहे में बताया है कि ऐसा भाग्य तो सिर्फ महान काम करनी वाली स्त्री का ही हो सकता है।

इसके साथ ही इस दोहे के माध्यम से कवि नटखट कान्हा की नींद की अवस्था का सुंदर बखान किया है कि किस तरह यशौदा मैया अपने नटखट कान्हा को नींद नहीं आने पर सुंदर लोरियां गाकर सुना रही हैं और इसके लिए नींद को उलाहना दे रही हैं –

दोहा:

“जसोदा हरि पालनै झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै।।

मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै। तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै।।

कबहुं पलक हरि मुंदी लेत हैं कबहुं अधर फरकावै। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै। इहि अंतर अकुलाइ उठे हरी जसुमति मधुरै गावै। जो सुख सुर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनी पावै।।”

अर्थ:

राग घनाक्षरी में बध्द इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की  शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया हैं। वह कहते हैं की मैया यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में झुला रही है। कभी तो वह पालने को हल्कासा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी चूमने लगती हैं।

ऐसा करते हुए वह जो मन में आता हैं वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती हैं। इसलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं की आरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता हैं। जब

यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी पलकें मूंद लेते हैं और कभी होठों को फड़काते हैं। जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा की अब तो कान्हा सो ही गया हैं। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं।

इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब उन्हें सुलाने के उद्देश से पुन: मधुर मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते है की सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।

सारांश:

सूरदास जी ने जिस तरह बाल कृष्ण की श्यानावस्था का वर्णन किया है वह वाकई शानदार है अर्थात सूरदास जी ने अपने इस पद से साबित कर दिया कि श्री कृष्ण की निंद्रावस्था की ऐसी व्याख्या तो श्री कृष्ण का कोई अत्यंत प्रिय भक्त ही कर सकता है।

सूरदासजी का दोहा नंबर 4 – Surdas ke Dohe 4

महाकवि सूरदास जी ने अपनी रचना के माध्यम से इस पद में श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर तरीके से वर्णन किया है। इस पद में कवि ने नटखट कान्हा की हिटखोलियों का चित्रण किया है कि किस प्रकार नन्हें कान्हा नंद बाबा को बुलाते हैं और खुद के शरीर पर माखन लगाते हुए अति मोहक लगते हैं वहीं इससे यशौदा मैया भी अपने लाल की बाल लीलाओं को देखकर बेहद खुश होती हैं –

दोहा:

“हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।।

बांह उठाई कारी धौरी गैयनि टेरी बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर आवत।।

माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत। कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।।

दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत। सुर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।।”

अर्थ:

राग रामकली में आबध्द इस पद में सूरदासजी जी ने भगवान् कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया हैं। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता हैं वो गाते हैं। वह छोटे छोटे पैरो से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं।

कभी वह भुजाओं को उठाकर कली श्वेत गायों को बुलाते है, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं और घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोड़ा सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं।

श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन में प्रसन्न होती हैं। सूरदासजी कहते हैं की इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य हर्षाती हैं।

सारांश:

इस पद में महाकवि सूरदास जी ने जिस तरह श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है वह वाकई तारीफ -ए- काबिल है।

श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का इतना जीवन्त वर्णन तो सूरदास ही कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने खुद को पूरी तरह कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया था और उन्हें हर जगह अपने प्रभु ही नजर आते थे।

वहीं सूरदास जी के इस पद को पढ़कर किसी का भी श्री कृष्ण के बाल्यकाल को देखने का मन करेगा और उनकी भक्ति में डूब जाने का मन करेगा।

सूरदासजी का दोहा नंबर 5 – Surdas ke Dohe 5

इस पद में भी विद्धान कवि सूरदास जी ने श्री कृष्ण की बाललीला को मन को लुभाने वाला वर्णन किया है।

उन्होंने इस दोहे में श्री कृष्ण के माखन चुराने की लीला का वर्णन किया है कि किस तरह नटखट कान्हा माखन खाने के लिए ग्वालिन के घर में जाकर माखन चोरी कर खा रहे हैं और पकड़े जाने पर बाल कृष्ण, ग्वालिन से इस  बात की गुहार लगा रहे हैं कि उनकी यह बात वो किसी से नहीं कहे।

इसके साथ ही इस दोहे में सूरदास जी ने श्री कृष्ण की लीलाओं से ग्वालिनों को भी सुख की अनुभूति की बात कही है-

दोहा:

“जो तुम सुनहु जसोदा गोरी। नंदनंदन मेरे मंदीर में आजू करन गए चोरी।।

हों भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी। रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी।।

मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी। जब गहि बांह कुलाहल किनी तब गहि चरन निहोरी।।

लागे लें नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी। सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।।”

अर्थ:

सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित हैं। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन हैं। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आयी। वो बोली की हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए।

पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा की माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई हैं तो मुझे बहुत पछतावा हुआ।

जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनकी आंखों में आंसू भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं की इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।

सारांश:

जिस तरह सूरदास जी ने अपने इस पद में श्री कृष्ण की बाल-लीला का सजीव और सुंदर वर्णन किया है। इस पद को पढ़कर कोई भी श्री कृष्ण की बाल लीला देखना चाहेगा और उनकी भक्ति में डूबना चाहेगा। नटखट कान्हा की इस तरह की शैतानियां वाकई मन को खुश करने वाली हैं।

सूरदासजी का दोहा नंबर 6- Surdas ke Dohe 6

सूरदास ने अपने इस पद के माध्यम से श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है। सूरदास ने इस पद में नटखट कान्हा के अपने माता को मैया, अपने पति को नंदबाबा और अपने भाई बलराम को भैया कहकर संबोधित करने का भी वर्णन किया है और उनकी नटखट हरकतों का जिन पर गोपियां उन पर मोहित हो जाती हैं।

दोहा:

“अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया। नंद महर सों बाबा अरु हलधर सों भैया।।

ऊंचा चढी चढी कहती जशोदा लै लै नाम कन्हैया। दुरी खेलन जनि जाहू लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।

गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर घर बजति बधैया। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।”

अर्थ:

सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबध्द हैं। भगवान् बालकृष्ण अब मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया नंदबाबा को बाबा और बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं।

इतना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया के नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं की लल्ला गाय तुझे मारेंगी।

सूरदास कहते हैं की गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता हैं। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयाँ दे रहे हैं। सूरदासजी कहते हैं की हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।

सारांश:

महाकवि सूरदास द्धारा श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन ह्रदय स्पर्शी है, इनके इस दोहे को पढ़कर ज्यादातर लोगों का मन प्रफुलल्लित हो उठता है और वो श्री कृष्ण के प्रति भावविभोर हो जाता है और उनकी भक्ति में डूब जाना चाहता है।

सूरदासजी का दोहा नंबर 7- Surdas ke Dohe 7

इस दोहे में महाकवि सूरदास जी ने बाल कृष्ण के हठी स्वभाव का वर्णन किया है। इसमें कवि ने अपनी कल्पना से बताया है कि श्री कृष्ण किस तरह माखन खाते-खाते अपनी मैया से रूठ जाते हैं और रूठते भी इस तरह हैं कि उनकी नीली झील सी आंखों से अस्रधारा बहती है जिस पर यशोदा मैया  को उनके प्रति प्रेम उमड़ता है।

दोहा:

“कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात। अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।।

कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धुरि धूसर गात। कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।।

कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात। सुर हरी की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।।”

अर्थ:

यह पद रामकली में बध्द हैं। एक बार कृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे की रोते रोते नेत्र लाल हो गये। भौंहें वक्र हो गई और बार बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकालते थे।

घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धुल – धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते।

सूरदास कहते हैं की श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक एक पाल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।

सारांश:

इस दोहे में कवि ने बाल कृष्ण के हठीले स्वभाव का वर्णन जिस तरह किया है वो  दिल को छू जाने वाला है। कवि की कृष्ण भक्ति इसमें स्पष्ट देखी जा सकती है इसके साथ ही कवि की श्री कृष्ण के प्रति प्रेम भावना का भी अंदाजा लगाया जा सकता है।

सूरदासजी का दोहा नंबर 8 – Surdas ke Dohe 8

कृष्ण भक्ति में डूबे सूरदास जी ने अपनी कल्पना से बाल श्री कृष्ण के खुद के घर में माखन चोरी के वाक्या का वर्णन किया है कि किस तरह यशोदा मैया द्धारा माखन चोरी करते पकड़े गए नटखट कान्हा, अपनी मैया से झूठ बोल रहे हैं जिनका यह रूप देखकर और सब जानते हुए भी उनकी मैया मन ही मन मुस्करा रही हैं। इस दोहे से कवि की कृष्ण भक्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

दोहा:

“मैं नहीं माखन खायो मैया। मैं नहीं माखन खायो। ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो।।

देखि तुही छींके पर भजन ऊँचे धरी लटकायो। हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।।

मुख दधि पोंछी बुध्दि एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो। डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो।।

बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो। सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो।।”

अर्थ:

“सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद राग रामकली में बध्द हैं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिध्द है। वैसे तो कान्हा ग्वालिनों के घरो में जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा मैया ने उन्हें देख लिया।

सूरदासजी ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। यशोदा मैया ने देखा की कान्हा ने माखन खाया हैं तो उन्होंने कान्हा से पूछा की क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब बालकृष्ण ने अपना पक्ष किस तरह मैया के सामने प्रस्तुत करते हैं, यही इस दोहे की विशेषता हैं।

कन्हैया बोले ………मैया! मैंने माखन नहीं खाया हैं। मुझे तो ऐसा लगता हैं की ग्वाल – बालों ने ही बलात मेरे मुख पर माखन लगा दिया है। फिर बोले की मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा हैं मेरे हाथ भी नहीं पहुच सकते हैं। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा था उसे छिपा लिया।

कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन में मुस्कुराने लगी और कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदासजी कहते हैं यशोदा मैया को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रम्हा को भी दुर्लभ हैं।

निष्कर्ष:

श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहने वाले कवि ने अपनी रचनाओं में भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का सुंदर और भावभिवोर वर्णन कर यह सिध्द किया हैं कि भक्ति का प्रभाव कितना गहरा और महत्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही सूरदास जी ने समाज के सामने ईश्वर की गाथा का अत्यंत सुंदर बखान किया है।

इसके साथ ही ईश्वर के प्रति शालीनता, सरलता और स्वभाविक रचना के कारण हिंदी साहित्य का कोई भी कवि इनके समकक्ष नहीं है। सूरदास जी की रचनाएं कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत हैं। जिसके जरिए वे भक्तों को कृष्ण के जीवन का ज्ञान देते हैं। वहीं इनकी रचनाओं से यह तो साफ है कि यह श्री कृष्ण के एक प्रचंड भक्त थे।

आशा करते है की आपको सूरदास के दोहे / Surdas Ke Dohe पसंद आये होंगे… और भी दोहे है इसे भी जरुर पढ़े :-

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13 COMMENTS

  1. मौ सुम कौन कुटिल खल कामी
    कृपया वियाख्या कीजिये

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