First Woman Auto Driver in India
कहते है कुछ बदलने के लिए शुरुआत करना जरुरी होता है फिर वो शुरुआत छोटी ही क्यों ना हो, ओर कामयाबी की कहानी भी अक्सर वही लोग लिखते है जो समाज के दायरों को तोड़कर इस बदलाव की नींव रखते है। एक ऐसी बदलाव की नीवं पुणे की शीला दावरे – Shila Dawre ने भी रखी। जो आज लाखों महिलों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।
आज के समय में वैसे तो बहुत सी महिलाएं कार चलाती है लेकिन एक समय हुआ करता था। जब महिलाओं के लिए कार और बाइक चलाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। और उस पर अगर कोई महिला ऑटो रिक्शा चलाने लग जाए तो शायद कोई इस बात को हजम ही न कर पाए कि एक महिला ऑटो – First Woman Auto Driver in India चला रही है। शीला दावरे के ऑटो चलाने से पहले उन्हें न जाने वाले लोगों की भी यही राय थी।
देश की पहली महिला ऑटो रिक्शा ड्राइवर की अनसुनी कहानी………..
पर शीला ने सब की सोच तो बदली ही साथ ही महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के रास्ते भी खोल दिए। शीला दावरे ने साल 1988 में पुणे में ऑटो रिक्शा चलाना शुरु किया था। आप सोच सकते है कि आज के समय में भी महिलाओँ को ड्राइविंग करते हुए देख कई पुरुष चौंक जाते है तो उस समय पुरुषों ऑटो रिक्शा ड्राइवरों के बीच एक महिला ड्राइवर को देखकर लोग कैसे चौंकते होंगे।
हालांकि शीला दावरे – Shila Dawre को इस दौरान बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। शीला दावरे के अनुसार जब वो पुणे आई थी तो उस समय वो सिर्फ 18 साल की थी। और घर से भागकर आई थी। उस समय शीला के पास सिर्फ 12 रुपये थे लेकिन शीला हार मानने वालों में से नहीं थी।
और वो घर से भी सिर्फ इसलिए भागी थी ताकि कुछ बनकर अपने परिवार की लड़कियों के प्रति सोच को बदल सकें। शीला ने धीरे – धीरे अपने हालातों में सुधार किया और ऑटो रिक्शा चलाने का फैसला किया। शुरु में शीला को देख हर कोई हैरान हो जाता था। क्योंकि शीला 99 प्रतिशत पुरुषों ड्राइवरों के बीच एकलौती सलवार कमीज वाली महिला ड्राइवर – First Woman Auto Driver in India थी।
लेकिन धीरे -धीरे लोगों ने इस बात को अपनाना शुरु कर दिया। कई बार पैंसेजर शीला के साथ पैसों को लेकर बदतमीजी भी करते थे। लेकिन शीला दावरे उन्हें मुहंतोड़ जवाब देती थी। जिसे लोगों को भी समझ आने लग गया कि वो कोई सीधी साधी कमजोर महिला नहीं है।
शीला दावरे ने कुछ समय बाद शादी कर ली। लेकिन ऑटो चलाना नहीं छोड़ा। परिवार और ऑटो रिक्शा चलाना इन दोनों कामों को एकसाथ बैंलेस करके चल पाना मुश्किल था लेकिन शीला दावरे ने परिवार और काम को बखूबी निभाया।
साल 1988 से लेकर 2001 तक शीला दावरे ने पुणे में ऑटो रिक्शा चलाया। इसके बाद सेहत संबंधी पेरशानियों की वजह से उन्हें ड्राइविंग छोड़नी पड़ी। हालांकि उनके 13 साल तक ऑटो रिक्शा ड्राइविंग कर समाज की सोच बदलने के लिए उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस में भी दर्ज है। लेकिन शीला दावरे की माने तो उन्होनों कभी किसी बड़े सम्मान की ख्वाहिश नहीं रखी।
शीला दावरे की कहानी से उन सब महिलाओं को सीख लेनी चाहिए कि जिंदगी में कभी हालातों से हार नहीं माननी चाहिए शीला दावरे ने उस समय अपने सपनों को चुना जब समाज में महिलाओं को पढ़ाना तो दूर उनसे ये तक नहीं पूछा जाता था कि वो क्या चाहती है बस कम उम्र में शादी करा दी जाती थी।
फिर हम क्यों अपनी जिंदगी से हार मान जाए जो कभी नहीं हुआ वो कभी ना कभी तो होगा, ओर बदलाव की उम्मीद किसी ओर से करने से अच्छा है कि उस बदलाव की नींव हम खुद ही रख दें।
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अच्छा लिखा है आपने।बधाई हो।
हमारी भी एक कविता आप पढ़ के बताइए।और रोशनी डालिए।
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