श्री कृष्ण की दीवानी के रूप में मीराबाई को कौन नहीं जानता। मीराबाई एक मशहूर संत होने के साथ-साथ हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और भगवान कृष्णा की भक्त थी। वे श्री कृष्ण की भक्ति और उनके प्रेम में इस कदर डूबी रहती थी कि दुनिया उन्हें श्री कृष्ण की दीवानी के रुप में जानती है।
मीराबाई जी को श्री कृष्ण भक्ति के अलावा कुछ और नहीं सूझता था, वह दिन-रात कृष्णा भक्ति में ही लीन रहती और उन्हें पूरा संसार कृष्णमय लगता था, इसलिए वे संसारिक सुखों और मोह-माया से दूर रहती थी, उनका मन सिर्फ श्री कृष्ण लीला, संत-समागम, भगवत चर्चा आदि में ही लगता था।
भगवान कृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए संत मीराबाई हजारो भक्तिमय कविताओ की रचना की है। संत मीरा बाई की श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम और भक्ति, उनके द्वारा रचित कविताओं के पदों और छंदों मे साफ़ देखने को मिलती है। वहीं श्री कृष्ण के लिए मीरा बाई ने कहा है।
“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई जाके सर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई” संत मीरा बाई कहती हैं, मेरे तो बस ये श्री कृष्ण हैं। जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरधर नाम पाया है। जिसके सर पे ये मोर के पंख का मुकुट है, मेरा तो पति सिर्फ यही है।”
मीराबाई जी, की श्री कृष्ण भक्ति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि, उन्हें अपनी कृष्ण भक्ति की वजह से अपने ससुराल वालों से काफी कष्ट भी सहना पड़ा था, यहां तक की उन्हें कई बार मारने तक की कोशिश भी की गई, लेकिन मीराबाई को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उनकी आस्था दिन पर दिन अपने प्रभु कृष्ण के प्रति बढ़ती चली गई, उन्होंने खुद को पूरी तरह श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया था।
श्री कृष्ण को अपने पति के रुप में मानकर उन्होनें कृष्ण भक्ति के कई स्फुट पदों की भी रचना की है , इसके साथ ही उन्होंने श्री कृष्ण के सौंदर्य का बेहतरीन तरीके से अपनी रचनाओं में वर्णन किया है।
महान संत मीराबाई जी की कविताओं और छंदों में श्री कृष्ण के प्रति उनकी गहरी आस्था और प्रेम की अद्भुत झलक देखने को मिलती है, इसके साथ ही उनकी कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रति एक गहरी टीस दिखाई देती है, जो भक्ति के रंग में रंगकर और भी ज्यादा गहरी हो गई है।
वहीं आज हम आपको अपने इस लेख में महान संत मीराबाई जी के जीवन से जुड़ी दिलचस्प जानकारी देंगे साथ ही उनकी साहित्य योगदान के बारे में भी बताएंगे, तो आइए जानते हैं, श्री कृष्ण की सबसे बड़ी साधिका एवं हिन्दी साहित्य की महान कवियित्री संत मीराबाई जी के जीवन बारे में –
श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिका- मीराबाई – Meera Bai in Hindi
एक नजर में –
नाम (Name) | मीराबाई |
जन्म तिथि (Birthday) | 1498 ईसवी, गांव कुडकी, जिला पाली, जोधपुर, राजस्थान |
पिता (Father Name) | रतन सिंह |
माता (Mother Name) | वीर कुमारी |
पति का नाम (Husband Name) | महाराणा कुमार भोजराज (कुंवर भोजराज) |
मृत्यु (Death) | 1557, द्वारका में। |
जन्म, परिवार एवं प्रारंभिक जीवन –
श्री कृष्ण की सबसे बड़ी साधक एवं महान अध्यात्मिक कवियत्री मीराबाई जी के जन्म के बारे में कोई भी पुख्ता जानकारी नहीं है, लेकिन कुछ विद्धानों के मुताबिक उनका जन्म 1498 ईसवी में राजस्थान के जोधपुर जिले के बाद कुडकी गांव में रहने वाले एक राजघराने में हुआ था। इनके पिता का नाम रत्नसिंह था, जो कि एक छोटे से राजपूत रियासत के राजा थे।
मीराबाई जी जब बेहद छोटी थी तभी उनके सिर से माता का साया उठ गया था, जिसके बाद उनकी परवरिश उनके दादा राव दूदा जी ने की थी, वे एक धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जो कि भगवान विष्णु के घोर साधक थे। वहीं मीराबाई पर अपने दादा जी का गहरा असर पड़ा था। मीराबाई बचपन से ही श्री कृष्ण की भक्ति में रंग गई थीं।
विवाह एवं संघर्ष –
श्री कृष्ण भक्ति में लीन रहने वाली मीराबाई जी का विवाह चितौड़ के महाराजा राणा सांगा के बड़े पुत्र एवं उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज के साथ हुआ था, लेकिन उनके विवाह के कुछ सालों बाद ही मीराबाई पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, उनके पति भोजराज की मौत हो गई थी। जिसके बाद वे श्री कृष्ण को पति मानकर हर समय उनकी आराधना में लीन रहने लगी थी।
श्री कृष्ण की आराधना करना, झेलना पड़ा था काफी विरोध:
मीराबाई के पति की मृत्यु के बाद उनका ज्यादातर समय श्री कृष्ण की भक्ति में व्यतीत होता था। वे श्री कृष्ण की भक्ति में इस कदर लीन रहती थीं, कि अपनी परिवारिक जिम्मेदारियों पर भी ध्यान नहीं दे पाती थी, यहां तक की मीराबाई ने एक बार अपने ससुराल में कुल देवी “देवी दुर्गा” की पूजा करने से यह कहकर मना कर दिया था कि, उनका मन गिरधर गोपाल के अलावा किसी औऱ भगवान की पूजा में नहीं लगता।
मीराबाई का रोम-रोम कृष्णमय था, यहां तक की वे हमेशा श्री कृष्ण के पद गाती रहती थी और साधु-संतों के साथ श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर नृत्य आदि भी किया करती थी, लेकिन मीराबाई का इस तरह नृत्य करना राजशाही परिवार को बिल्कुल पसंद नहीं था, वे उन्हें ऐसा करने से रोकते भी थे, और इसका उन्होंने काफी विरोध भी किया था।
मीराबाई के ससुराल वाले इसके पीछे यह तर्क देते थे, वे मेवाड़ की महारानी है, उन्हें राजसी परंपरा निभाने के साथ राजसी ठाठ-वाठ से रहना चाहिए और राजवंश कुल की मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए। कई बार मीराबाई को अपनी कृष्ण भक्ति की वजह से काफी जिल्लतों का भी सामना करना पड़ा था, बाबजूद इसके मीराबाई ने श्री कृष्ण की आराधना करना नहीं छोड़ी।
कृष्ण भक्ति को देख ससुरालियों ने रची थी उन्हें मारने की साजिश:
श्री कृष्ण भक्ति की वजह से मीराबाई जी के अपने ससुराल वालों से रिश्ते दिन पर दिन खराब होते जा रहे थे और फिर ससुराल वालों ने जब देखा कि किसी तरह भी मीराबाई की कृष्ण भक्ति कम नहीं हो रही है, तब उन्होंने कई बार विष देकर मीराबाई को जान से मारने की कोशिश भी की, लेकिन वे श्री कृष्ण भक्त का बाल भी बांका नहीं कर सके।
- मीराबाई को दिया जहर का प्याला:
बड़े साहित्यकारों और विद्धानों की माने तो एक बार हिन्दी साहित्य की महान कवियित्री मीराबाई के ससुराल वालों ने जब उनके लिए जहर का प्याला भेजा, तब मीराबाई ने श्री कृष्ण को जहर के प्याले का भोग लगाया और उसे खुद भी ग्रहण किया, ऐसा कहा जाता है कि, मीराबाई की अटूट भक्ति और निश्छल प्रेम के चलते विष का प्याला भी अमृत में बदल गया।
- मारने के लिए फूलों को टोकरी में भेजा सांप:
प्रख्यात संत मीराबाई की हत्या करने के पीछे एक और किवंदित यह भी प्रचलित है कि, जिसके मुताबिक एक बार मीराबाई के ससुराल वालों ने उन्हें मारने के लिए फूलों की टोकरी में एक सांप रख कर मीरा के पास भेजा था, लेकिन जैसे ही मीरा ने टोकरी खोली, सांप फूलों की माला में परिवर्तित हो गया।
- राणा विक्रम सिंह ने भेजी कांटों की सेज:
श्री कृ्ष्ण की दीवानी मीराबाई को मारने की कोशिश में एक अन्य किवंदति के मुताबिक एक बार राणा विक्रम सिंह ने उन्हें मारने के लिए कांटो की सेज (बिस्तर) भेजा, लेकिन, ऐसा कहा जाता है कि, उनके द्धारा भेजा गया कांटो का सेज भी फूलों के बिस्तर में बदल गया।
श्री कृष्ण की अनन्य प्रेमिका और कठोर साधक मीराबाई की हत्या के सारे प्रयास विफल होने के पीछे लोगों का यह मानना है कि, भगवान श्री कृष्ण अपनी परम भक्त की खुद आकर सुरक्षा करते थे, कई बार तो श्री कृष्ण ने उन्हें साक्षात दर्शन भी दिए थे।
मीरा बाई और अकबर –
भक्तिशाखा की महान संत और कवियित्री मीराबाई जी के कृष्ण भक्ति के लिए उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। श्री कृष्ण की प्रेम रस में डूबकर मीराबाई जी द्धारा रचित पद, कवतिाएं और भजनों को समस्त उत्तर भारत में गाया जाने लगा। वहीं जब मीराबाई जी का श्री कृष्ण के प्रति अद्भुत प्रेम और उनके साथ हुई चमत्कारिक घटनाओं की भनक मुगल सम्राट अकबर को लगी, तब उसके अंदर भी मीराबाई जी से मिलने की इच्छा जागृत हुई।
दरअसल, अकबर ऐसा मुस्लिम मुगल शासक था, जो कि हर धर्म के बारे में जानने के लिए उत्साहित रहता था, हालांकि मुगलों की मीराबाई के परिवार से आपसी रंजिश थी, जिसके चलते मुगल सम्राट अकबर का श्री कृष्ण की अनन्य प्रेमिका मीराबाई से मिलना मुश्किल था।
लेकिन मुगल सम्राट अकबर, मीराबाई के भक्ति भावों से इतना अधिक प्रेरित था, कि वह भिखारी के वेश में उनसे मिलने गया और इस दौरान अकबर ने मीराबाई के श्री कृष्ण के प्रेम रस में डूब भावपूर्ण भजन, कीर्तन सुने, जिसे सुनकर वह मंत्रमुग्ध हो गया और मीराबाई को एक बेशकीमती हार उपहार स्वरुप दिया।
वहीं कुछ विद्धानों की माने तो मुगल सम्राट अकबर की मीराबाई से मिलने की खबर मेवाड़ में आग की तरह फैल गई, जिसके बाद राजा भोजराज ने मीराबाई को नदी में डूबकर आत्महत्या करने का आदेश दे डाला।
जिसके बाद मीराबाई ने अपने पति के आदेश का पालन करते हुए नदी की तरफ प्रस्थान किया, कहा जाता है कि जब मीराबाई नदी में डूबने जा रही थी, तब उन्हें श्री कृष्णा साक्षात् दर्शन हुए, जिन्होंने न सिर्फ उनके प्राणों की रक्षा की, बल्कि उन्हें राजमहल छोड़कर वृन्दावन आकर भक्ति करने के लिए कहा, जिसके बाद मीराबाई, अपने कुछ भक्तों के साथ श्री कृष्ण की तपोभूमि वृन्दावन चली गईं और अपने जीवन का ज्यादातर समय वहीं बिताया।
श्री कृष्ण की नगरी वृंदावन में:
श्री कृष्ण की भक्ति में खुद को पूरी तरह समर्पित कर चुकीं मीराबाई ने श्रीकृष्ण के आदेश पर गोकुल नगरी में जाने का फैसला लिया। वृन्दावन में श्री कृष्ण की इस सबसे बड़ी साधिका को खूब मान -सम्मान मिला, मीराबाई जहां भी जाती थी, लोग उन्हें देवियों जैसा मान सम्मान देते थे।
राजा भोजराज को हुआ अपनी गलती का एहसास:
श्री कृष्ण की भक्ति में पूरी तरह खुद को समर्पित कर चुकी मीराबाई जी के पति राजा भोजराज को जब यह बात महसूस हुई कि, मीराबाई जी एक सच्ची संत है, और उनकी कृष्ण भक्ति निस्वार्थ है और श्री कृष्ण के प्रति उनका अपार प्रेम निच्छल है, और उन्हें उनकी भक्ति का सम्मान करना चाहिए एवं उनकी कृष्ण भक्ति में उनका सहयोग करना चाहिए।
तब वे मीराबाई को वापस चित्तौड़ लाने के लिए वृन्दावन पहुंच गए और मीराबाई से माफी मांगी, साथ ही मीराबाई से उनकी कृष्ण भक्ति में साथ देने का वादा किया, जिसके बाद मीराबाई किसी तरह उनके साथ वापस चित्तौड़ जाने के लिए राजी हो गईं, लेकिन इसके कुछ समय बाद ही राजा भोज (राणा कुंभा) की मृत्यु हो गई। जिसके बाद मीराबाई को उनके सुसराल में प्रताड़ित किया जाने लगा।
ऐसा भी कहा जाता है कि,मीराबाई के पति की मृत्यु के बाद उनके ससुर राणा सांगा ने उस समय सती प्रथा की परंपरा के मुताबिक मीराबाई से अपने पति की चिता के साथ सती होने को कहा, लेकिन मीराबाई ने श्री कृष्ण को अपने वास्तविक पति बताकर सती होने से मना कर दिया।
जिसके बाद मीराबाई पर उनके ससुरालों वालों को जुल्म और अधिक बढ़ते चले गए, लेकिन मीराबाई द्धारा काफी कष्ट सहने के बाद भी उनका श्री कृष्ण प्रेम कभी कम नहीं हुआ, बल्कि अपने प्रभु श्री कृष्ण में उनकी आस्था और अधिक बढ़ती चली गई।
महान कवि तुलसीदास जी को पत्र –
श्री कृष्ण की भक्ति में लीन मीरा बाई ने हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसीदास जी को भी पत्र लिखा था, जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार है –
“स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करीबो है, सो लिखिए समझाई।।”
इस पत्र के माध्यम से मीराबाई ने तुलसीदास जी से सलाह मांगी कि, मुझे अपने परिवार वालों के द्धारा श्री कृष्ण की भक्ति छोड़ने के लिए प्रताडि़त किया जा रहा है, लेकिन मै श्री कृष्ण को अपना सर्वस्व मान चुकी हैं, वे मेरी आत्मा और रोम-रोम में बसे हुए हैं।
नंदलाल को छोड़ना मेरे लिए देह त्यागने के जैसा है, कृपया ऐसी असमंजस से निकालने के लिए मुझे सलाह दें, और मेरी मद्द करें। जिसके बाद भक्ति शाखा की महान कवियित्री मीराबाई के पत्र का जबाव हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसी दास ने इस तरह दिया था –
“जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।। नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।”
अर्थात तुलसीदास जी ने मीराबाई जी से कहा कि, जिस तरह भगवान विष्णु की भक्ति के लिए प्रहलाद ने अपने पिता को छोड़ा, राम की भक्ति की लिए विभीषण ने अपने भाई को छोड़ा, बाली ने अपने गुरु को छोड़ा और गोपियों ने अपने पति को छोड़ा उसी तरह आप भी अपने सगे-संबंधियों को छोड़ दो जो आपको और श्री कृष्ण के प्रति आपकी अटूट भक्ति को नहीं समझ सकते एवं भगवान राम और कृष्ण की आराधना नहीं करते।
क्योंकि भगवान और भक्त का रिश्ता अनूठा होता है, जो अजर-अमर है और इस दुनिया में सभी संसारिक रिश्तों को मिथ्या बताया।
गुरु रविदास जी –
श्री कृष्ण भक्ति शाखा की महान कवियत्री मीराबाई और उनके गुरु रविदास जी की मुलाकात और उनके रिश्ते के बारे में कोई साक्ष्य प्रमाण नहीं मिलता है।
ऐसा कहा जाता है कि वे अपने गुरु रैदास जी से मिलने अक्सर बनारस जाया करती थी, संत रैदास जी से मीराबाई की मुलाकात बचपन में हुई थी, वे अपने दादा जी के साथ धार्मिक समागमों में वे संत रैदास जी से मिली थे। वहीं कई बार अपने गुरु रैदास जी के साथ मीराबाई जी सत्संग में भी शामिल हुई थी।
इसके साथ ही कई साहित्यकार और विद्धानों के मुताबिक संत रैदास जी मीराबाई के अध्यात्मिक गुरु थे। वहीं मीराबाई जी ने भी अपने पदों में संत रविदास जी को अपना गुरु बताया है, मीराबाई जी द्धारा रचित उनका पद इस प्रकार है-
“खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।। वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।। मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।। मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।। गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय। गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।”
मीराबाई के इस पद से स्पष्ट होता है कि, मीराबाई ने, संत रैदास जी को ही अपना सच्चा और अध्यात्मिक गुरु माना था और उन्होंने रविदास जी से ही संगीत, सबद एवं तंबूरा बजाना सीखा था। आपको बता दें कि मीराबाई जी ने अपने भजनों, पदों आदि में ज्यादातर भैरव राग का ही इस्तेमाल किया है।
साहित्यिक देन –
मीराबाई,सगुण भक्ति धारा की महान अध्यात्मिक कवियत्री थी, इन्होंने श्री कृष्ण के प्रेम रस में डूबकर कई कविताओं, पदों एवं छंदों की रचना की। मीराबाई जी की रचनाओं में उनका श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम, श्रद्धा, तल्लीनता, सहजता एवं आत्मसमर्पण का भाव साफ झलकता है।
मीराबाई ने अपनी रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषा शैली में की है। सच्चे प्रेम से परिपूर्ण मीराबाई जी की रचनाओं एवं उनके भजनों को आज भी पूरे तन्मयता से गाते हैं। मीराबाई जी ने अपनी रचनाओं में बेहद शानदार तरीके से अलंकारों का भी इस्तेमाल किया है।
मीराबाई ने बेहद सरलता और सहजता के साथ अपनी रचनाओं में अपने प्रभु श्री कृष्ण के प्रति प्रेम का वर्णन किया है।इसके साथ ही उन्होंने प्रेम पीड़ा को भी व्यक्त किया है। आपको बता दें कि मीराबाई जी की रचनाओं में श्री कृष्ण के प्रति इनके ह्रदय के अपार प्रेम देखने को मिलता है, मीराबाई द्धारा लिखी गईं कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के नाम नीचे लिखी गए हैं, जो कि इस प्रकार है –
- नरसी जी का मायरा
- मीराबाई की मलार
- गीत गोविंन्द टिका
- राग सोरठ के पद
- राग गोविन्दा
- राग विहाग
- गरबा गीत
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रंथ में किया गया है।।
प्रसिद्ध पद –
“बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।
अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।”
मृत्यु –
कुछ पौराणिक कथाओं के मुताबिक भक्ति धारा की महान कवियित्री मीराबाई जी ने अपने जीवन का आखिरी समय द्धारका में व्यतीत किया, वहीं करीब 1560 ईसवी में जब एक बार मीराबाई बेहद द्धारकाधीश मंदिर में श्री कृष्ण के प्रेम भाव में डूबकर भजन -कीर्तन कर रही थी, तभी वे श्री कृष्ण के पवित्र ह्रद्य में समा गईं।
जयंती –
हिन्दू कलैंडर के मुताबिक शरद पूर्णिमा के दिन मीराबाई जी की जयंती मनाई जाती है। मीराबाई को आज भी लोग श्री कृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त के रुप में जानते हैं इसके साथ ही उनके प्रेम रस में डूबे भजन को गाते हैं। इसके साथ ही कई हिन्दी फिल्मों में भी मीराबाई के पदों का इस्तेमाल किया गया है।
अर्थात मीराबाई ने जिस तरह तमाम कष्ट झेलते हुए एकाग्र होकर अपने प्रभु को चाहा, वो वाकई सराहनीय है, अर्थात हर किसी को सच्चे मन के साथ प्रभु में आस्था रखनी चाहिए और अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहना चाहिए।
“जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।। दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।”
Meera bai ke guru ka kya naam tha
Mirabai ki Mritu kab huyi thi?
It was v.v useful to me thanks…
Meera bai ke guru ka name raidas hatu. And Krishna bhakti ni bhet dada dudhaji ae apeli hati