Khilafat Movement in Hindi
खिलाफत आंदोलन की एक पैन इस्लामिक, राजनीतिक विरोध अभियान था। आपको बता दें कि जब भारत में खिलाफत आंदोलन की शुरुआत हुई थी। उस समय मुस्लिमों में भारी आकुलता थी। जिसकी मुख्य कारण केन्द्रीय इस्लामी खिलाफत से मुसलमानों का गहरा संबंध, भावनात्मक लगाव और गहरा प्रेम था। इसलिए खिलाफत आंदोलन को इस्लाम की रूह और मजहब की बुनियाद माना जाता है।
वहीं ब्रिटिश शासन के प्रति बढ़ रहे क्रोध ने खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन को जन्म दिया था। दरअसल तुर्की ने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के खिलाफ हिस्सा लिया था। वहीं तुर्की पराजित देशों में से एक था और ब्रिटेन ने तुर्की के साथ अन्याय किया था।
साल 1919 में मोहम्मद अली और शौकत अली जो कि अली बंधुओं के नाम से मशहूर थे, इनके साथ मौलाना अबुल कलाम आजाद, हसरत मोहानी समेत कुछ अन्य मुस्लिम नेताओं के नेतृत्व में तुर्की के साथ हुए अत्याचार के विरोध में खिलाफत आन्दोलन – Khilafat Andolan चलाया गया। वहीं तुर्की के सुल्तान को खलीफा अर्थात मुस्लिमों का धर्मगुरु भी माना जाता था।
इसलिए तुर्की के साथ हुए अन्याय के मुद्दे को लेकर जो आन्दोलन शुरू हुआ,उसे ही खिलाफत आन्दोलन – Khilafat Movement कहा गया।
खिलाफत आंदोलन – Khilafat Movement in Hindi
खिलाफत आंदोलन के बारे मे जानकारी – Information About Khilafat Andolan in Hindi
आंदोलन का नाम | खिलाफत आंदोलन |
आंदोलन के नेता |
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आंदोलन की शुरुवात | १७ अक्टूबर १९१९ |
आंदोलन समाप्त हुआ | साल १९२४ |
प्रमुख सहयोगी आंदोलन | असहयोग आंदोलन |
आंदोलन के प्रमुख नेता | महात्मा गांधी |
आपको बता दें कि खिलाफत आंदोलन जो कि 1919 से 1922 तक चलाया गया था, इसका मुख्य मकसद तुर्की के खलीफा पद की स्थापना करने के लिए अंग्रेजों पर दबाव बनाना था।
साल 1922 के आखिरी में जब आंदोलन ढह गया तो तुर्की ने अनुकूल कूटनीतिक स्थिति हासिल की और धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ावा दिया। जबकि साल 1924 तक तुर्की ने सुल्तान और खलीफा की भूमिका को खत्म कर दिया था।
खिलाफत आंदोलन का इतिहास – Khilafat Movement in India
जब पहला विश्वयुद्ध खत्म हो गया तो उसके बाद अलग-अलग साम्राज्यों पर शासन करने की होड़ मच गई। इस दौरान जर्मनी के साथ-साथ तुर्की को भी पराजय का सामना करना पड़ा था। इसके साथ ही ब्रिटेन एवं तुर्की के बीच होने वाली सीवर्स की संधि से तुर्की के सुल्तान के पूरे अधिकार छीन लिए गए और इस तरह से तुर्की का आस्तित्व खतरे में आ गया।
क्योंकि उस समय खलीफा मुस्लिमों का सबसे बड़ा नेता और प्रतिनिधि माना जाता था, इसलिए जो प्रस्ताव इस खिलाफत को खत्म करने के लिए लाया गया था उसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा। इससे भारतीय मुस्लिमों की भावनाएं बेहद आहत हुईं।
इसलिए भारतीय मुस्लिमों के एक बहुसंख्यक वर्ग ने राष्ट्रीय स्तर पर खिलाफत आंदोलन का सूत्रपात किया। और ब्रिटिश सरकार को जमकर कोसा और तो और अंग्रेजों के खिलाफ लामबंदी भी की गई। वहीं इस आंदोलन में महात्मा गांधी ने भी अपनी अहम भूमिका अदा की।
दरअसल महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को हिन्दू और मुस्लिम की एकता के लिए ठीक समझा इसलिए उन्होनें मुस्लिमों के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। दरअसल जब अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन का आयोजन हुआ था, तब अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग की गई थी।
वहीं इसके साथ खिलाफत नेताओं ने ये भी कहा था कि युद्ध के बाद तुर्की पर थोपी गई संधि शर्तों को जब तक सरल नहीं बनाया जाएगा, तब तक वे सरकार के साथ किसी भी तरह का कोई समर्थन नहीं करेंगे। उस दौरान हर तरफ से भारतीयों पर अपनी कटुनीतियों के तहत दवाब बना रहे थे और भारतीयों को धोखे में रखा जा रहा था, जिससे कांग्रेस भलिभांति वाकिफ थी।
इसलिए खिलाफत के रूप में एक बड़ा राजनीतिक आंदोलन हिंदू- मुस्लिमों की एकता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का अच्छा मौका था। यही वजह थी कि गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को अपना समर्थन दे दिया और अपना केसर-ए-हिंद पदक अंग्रेजों को वापस कर दिया।
खिलाफत समिति का गठन – Khilafat Committee
23 नवम्बर, साल 1919 को दिल्ली में ‘अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी’ के अधिवेशन का आयोजन किया गया। इस अधिवेशन की गांधी जी ने अध्यक्षता की। गांधी जी के सुझावों के मुताबिक असहयोग एवं स्वदेशी की नीति अपनाई गई।
साल 1918-1919 के बीच भारत में खिलाफत आंदोलन मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली एवं अबुल कलाम आजाद के सहयोग से जोर पकड़ता चला गया। जिसके बाद सितम्बर 1919 में खिलाफ़त समिति का गठन किया गया। महात्मा गांधी जी के कहने पर शिष्टमण्डल के नेता डॉक्टर अन्सारी वायसराय से मिलने इंग्लैण्ड गए।
Ali Brothers
वहीं मार्च, 1920 को कत अली एवं मुहम्मद अली के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल इंग्लैण्ड गया। लेकिन ये दोनों दल अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सके। जिसके बाद 20 जून, 1920 को इलाहाबाद में हुई हिन्दू-मुस्लिमों की संयुक्त बैठक हुई।
इस बैठक में ‘असहयोग आंदोलन‘ के अस्त्र का अपनाये जाने का फैसला किया गया, तब से 31 अगस्त, 1920 का दिन खिलाफत दिवस के रूप में मनाया गया। इसी बीच कांग्रेस समेत सभी दलों ने असहयोग आंदोलन का भी आव्हाहन कर दिया।
खिलाफत आंदोलन की प्रमुख वजहे – Causes Behind Khilafat Movement
- जैसा के प्रथम विश्वयुद्ध मे तुर्की ने जर्मनी, हंगेरी तथा ऑस्ट्रिया का साथ देते हुये ब्रिटेन और अन्य देशो के विरुध्द प्रथम महायुध्द मे भाग लिया था।इसका नतिजा ये हुआ था की तुर्कस्थान बुरी तरह से हार गया था जिसमे उसे भारी नुकसान भी उठाना पडा था।
- दुनियाभर के मुस्लीम धर्मीय लोगो का तुर्की के खलिफा से आस्था और भावनात्मक जुडाव था क्योंकी तुर्की का खलिफा समुचे मुस्लीम समुदाय का धर्मगुरू का पद था। इसलिये प्रथम महायुध्द मे तुर्की के खलिफा का पद खतरे मे पड गया था।इसकी बदौलत समुचे विश्वभर मे मुस्लीम समुदाय मे ब्रिटेन के विरुध्द आक्रोश और गुस्से के हालात निर्माण हुये थे।
- ईसी दौरान भारत मे साल १९१९ मे गांधीजी के नेतृत्व मे अंग्रेजो के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेडा गया था। जिसमे सभी ब्रिटीश वस्तूओ का विरोध किया गया उस समय मे ये आंदोलन काफी बडे स्तर पर चलाया गया था जिसकी व्याप्ती पुरे भारतभर मे फैलने लगी थी।इसिलीये इस आंदोलन के माध्यम से अपनी मांगे और आवाज को बुलंद करने के हिसाब से अली बंधू और उनके सहयोगीयो ने अबुल कलाम आजाद के साथ “खिलाफत आंदोलन”के तौर पर, ब्रिटीश सरकार के खिलाफ तुर्की के खलिफा के समर्थन मे आंदोलन शुरू किया था।
- खिलाफत आंदोलन मे भारत के मुस्लीमो की स्पष्ट रूप से मांग थी की तुर्की के खलिफा का पद कायम रहे तथा दुनियाभर के पवित्र मुस्लीम स्थानो पर तुर्की के खलिफा सुलतान का नियंत्रण रहे।
- भलेही तुर्की प्रथम विश्वयुध्द मे ब्रिटेन से हार गया था पर भारत के मुस्लीमो की “खिलाफत आंदोलन”द्वारा मांग थी की खलिफा के अधीन कमसे कम इतना भूभाग रहे जिस से वो इस्लाम की रक्षा कर सके और उसे किसी प्रकार से क्षति नही होनी चाहिये।
- भारत के मुस्लीमो को डर था के ब्रिटीश सरकार के उपनिवेश और जुलमी शासन की चपेट मे सिरीया, इराक,अरब तथा फिलीस्तान इत्यादी मुस्लीम बाहुल्यता के प्रांत ना आए जिससे भविष्य मे इस्लाम और खलिफा को नुकसान उठाना पडे।ये भी खिलाफत आंदोलन की प्रमुख वजह थी, जिसने इस आंदोलन से देशभर के मुस्लीमो को जोडने का कार्य किया था।
- महात्मा गांधीजी को खिलाफत आंदोलन के माध्यम से देश के मुस्लीमो को आजादी के संघर्ष मे ब्रिटीश सरकार के खिलाफ एकजूट करने का अच्छा मौका प्राप्त हुआ था।इसी लिये असहयोग आंदोलन के प्रवाह मे मुस्लीमो को खिलाफत आंदोलन से जोडा गया था, जिससे बहुत हद तक ये आंदोलन मजबूत हो गये थे।
- खिलाफत और असहयोग आंदोलन के पूर्व देश मे कुछ ऐसी घटनाए हुई थी जिससे सामान्य जनमानस अंग्रेजो के खिलाफ काफी असंतोष से भरे हुये थे।जैसा के जालीयनवाला बाग हत्याकांड, रौलट कानून (१९१९) जो के काले कानून के रूप मे माना गया था जिसमे बगैर पुछ्ताछ् और किसी गुनाह के बगैर अंग्रेज सरकार लोगो को जेल मे बंद कर देती थी, इन सभी घटनाओ ने असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन के लिये पृष्ठभूमी का निर्माण किया था।
- ब्रिटेन द्वारा तुर्की के सुलतान से सीवर्स संधी (Treaty Of Sevres) के सारे हक छीन लिये गये थे, जिससे तुर्की का अस्तित्व ही खतरे मे आ गया था। ये भी प्रमुख वजह थी जिससे भारत के मुस्लिम ब्रिटीश सरकार से काफी नाराज हुये थे।
उपरोक्त दिये गये सभी कारण थे जिसका मिला जुला परिणाम ये हुआ की भारत मे मुस्लिम वर्ग ने स्वयंस्फूर्ती से महात्मा गांधी के नेतृत्व मे खिलाफत आंदोलन के माध्यम से अंग्रेजो के विरुध्द अपना रोष प्रकट किया था।
खिलाफत आंदोलन के परिणाम और महत्व – Effects of Khilafat Movement
- हिंदू- मुस्लीम एकता को मिला बल:
खिलाफत आंदोलन मे भारत के मुस्लीमो का भारी मात्रा मे जुड जाने मतलब था के आजादी के लिये अंग्रेजो के खिलाफ जो जंग भारत मे छिडी थी उसे हिंदू मुस्लीम एकता के रूप मे बल मिला। ये वो मौका था जिस से देश मे अंग्रेजो के खिलाफ उठे हुये गुस्से और असंतोष को एक सही मार्ग से प्रदर्शित करने के लिये अनुकूल परिस्थिती का निर्माण होने जा रहा था। तथा हिंदू मुस्लीम ऐक्य ने असहयोग और खिलाफत आंदोलन को देशभर मे व्याप्त करने मे सहायक भूमिका निभाई थी।
- राष्ट्रीय आंदोलन मे मुस्लिमो का सहभाग:
खिलाफत आंदोलन असहयोग आंदोलन से जुडा होने के कारण पहली बार मुस्लिमो का राष्ट्रीय आंदोलन मे सहयोग देखने को मिला था।जिसमे अबुल कलाम आजाद, शौकत अली और मोहम्मद अली जौहर जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इस आंदोलन का हिस्सा बन गये थे, जिसमे अंग्रेजो के खिलाफ बडे स्तर पर विरोध प्रदर्शन को बल मिला था। हिंदू मुस्लिम एकता से हमेशा अंग्रेज सरकार को डर और असुरक्षितता महसूस होती थी, जो के कुल मिलाके इस आंदोलन के एकता ने अंग्रेजो को हिला कर रख दिया था।
- विभिन्न वर्ग के असंतोष का प्रतिक सिद्ध हुआ आंदोलन:
देश मे पहले से ही अंग्रेजो के खिलाफ सभी वर्ग भारी मात्रा मे गुस्से मे थे जिसमे किसान, व्यापारी वर्ग, धार्मिक गतीविधियो से जुडे लोग तथा अंग्रेजो के रोजमर्रा के जुल्म से पिडीत लोग इत्यादि का इसमे समावेश था।इस आंदोलन मे सभी वर्गो के लोग थे जिन्हे अंग्रेजो से छुटकारा चाहिये था, इन सबके मन मस्तिष्क मे बसे रोष को आवाज देने का कार्य इस आंदोलन ने किया। सांप्रदायिकता से परे एक अनुठे माहौल का निर्माण इस आंदोलन के वजह से हुआ था जिसे एक सकारात्मक परिणाम के तौर पर देखा गया।
असहयोग की मुख्य वजह – Causes of Non Cooperation Movement
कांग्रेस ने सितम्बर, 1920 ई. में असहयोग को छेड़ दिया। जिसके मुख्य कारण नीचे लिखे गए हैं –
- रौलट एक्ट
- जलियांवाले बाग का हत्याकाण्ड
- हण्टर समिति की रिपोर्ट
- भारतीय राजस्व की मांग आदि।
असहयोग आंदोलन (1920-1922) – Non Cooperation Movement
औपचारिक तरीके से असहयोग आंदोलन अगस्त, 1920 को शुरू हुआ था। आपको बता दें कि इसी दौरान महात्मा गांधी जी ने इस मांग को स्वीकार कर लिया कि, जब तक खिलाफत संबंधी अत्याचारों की भरपाई नहीं होती और स्वराज्य स्थापित नहीं होता, तब तक सरकार से असहयोग किया जाएगा।
इस दौरान लोगों से सरकारी शिक्षा संस्थाओं, अदालतों और विधान मंडलों का बहिष्कार करने, विदेशी वस्त्रों का त्याग करने, सरकार से उपाधियों और सम्मान वापस करने और हाथ से सूत कातकर और बुनकर खादी का इस्तेमाल करने का भी आग्रह किया गया।
यही नहीं इसके बाद में सरकारी नौकरी से इस्तीफा और कर चुकाने से इन्कार करने को भी इस कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया। वहीं जल्द ही कांग्रेस ने चुनावों का बहिष्कार कर दिया। जिसमें बडे़ स्तर पर जनता का सहयोग प्राप्त था।
इसके बाद दिसंबर, 1920 में नागपुर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन का आयोजन किया गया, जिसमें सरकार और उसके कानूनों के शांतिपूर्ण उल्लंघन के फैसले को अनुमोदित भी कर दिया गया। इस दौरान कांग्रेस शांतिपूर्ण और उचित तरीके से स्वराज प्राप्त करना चाहती थी।
इसलिए कांग्रेस ने संवैधानिक दायरे से बाहर जन संघर्ष की अवधारणा को स्वीकार कर लिया। इसके अलावा कुछ अहम संगठात्मक बदलाव भी किए गए जिसमें कांग्रेस के रोजमर्रा के क्रियाकलापों को देखने के लिए 15 सदस्यों की कार्यकारिणी समिति का गठन किया गया। इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर, भाषाओं के आधार पर भी कांग्रेस कमेटियों का गठन किया गया। सदस्यता फीस चार आना साल कर दी गई।
महात्मा गांधी जी ने नागपुर अधिवेशन में घोषणा करते हुए कहा था कि, अगर असहयोग आंदोलन चलाया गया तो एक साल के अंदर स्वराज्य प्राप्त के उद्देश्य को पूरा कर लिया जाएगा। इसके साथ ही गांधी जी ने ये भी कहा था कि ब्रिटिश सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि अगर वह न्याय नहीं करेगी तो ब्रिटिश साम्राज्य को नष्ट करना हर भारतीय का परम् कर्तव्य होगा।
कांग्रेस की तरफ से अहसहयोग आंदोलन को स्वीकार किए जाने और खिलाफत कमेटी द्धारा इसका पूरा समर्थन करने की घोषणो का लोगों पर गहरा असर पड़ा। लोगों में इसको लेकर एक नई चेतना का विकास हुआ। वहीं अगर साल 1921-1922 की बात करें, तो लोगों में अप्रत्याशित लोकप्रियता देखने को मिली।
यहां तक की बड़ी संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूल कॉलेजों का बहिष्कार किया। वहीं शिक्षण संस्थाओं के बहिष्कार करने में पश्चिम बंगाल राज्य सबसे आगे रहा। जबकि कलकत्ता के छात्रों ने सरकार का विरोध करने के लिए राज्यव्यापी हड़ताल की और ये मांग की थी कि स्कूल के प्रबंधक, सरकार का किसी तरह का समर्थन नहीं करे।
हालांकि, इस दौरान पूरे देश में आचार्य नरेन्द्र देव, सी.आर. दास, लाला लाजपत राय, जाकिर हुसैन तथा सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में अलग-अलग राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई। सुभाष चन्द्र बोस ‘नेशनल कॉलेज कलकत्ता’ के प्रधानाचार्य बन गए।
इस दौरान छात्रों की पढ़ाई के लिए काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजराज विद्यापीठ, बनारस विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामियां एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय समेत कई शिक्षण संस्थान ने भी इसमें अहम योगदान दिया।
इसके बाद पंजाब, बम्बई, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बिहार तथा असम में भी इस नीति को अपनाया गया। यही नहीं कई सालों से वकालत कर रहे वकीलों ने भी अपनी वकालत छोड़ दी। इनमें मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सी.आर. दास, सी. राजगोपालाचारी, सैफुद्दीन किचलू, वल्लभभाई पटेल, आसफ अली, टी. प्रकाशम और राजेन्द्र प्रसाद प्रमुख थे।
इस तरह से असहयोग आंदोलन चलाने के लिए तिलक स्वराज्यकोष स्थापित किया गया। 6 महीने के अन्दर इसमें एक करोड़ रुपया जमा हो गया। वहीं इस आंदोलन में महिलाओं ने भी बड़े स्तर पर हिस्सा लिया यहां तक कि अपने गहनों, जेवरों का खुलकर दान किया।
विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर एक जन आंदोलन बन गया और तो और लोगों ने विदेशी कपड़ों का पूरी तरह से बहिष्कार किया और अपने पास रखे विदेशी कपड़ों को आग में जला दिया। वहीं उस दौरान महात्मा गांधी ने खादी पहनने पर जोर दिया था और इसको लेकर काफी प्रचार-प्रसार किया था वहीं धीमे-धीमे खादी स्वतंत्रता का भी प्रतीक बन गई।
आपको बता दें कि जुलाई, 1921 में एक प्रस्ताव पारित कर खिलाफत आंदोलन ने घोषणा कि कोई भी मुस्लिम ब्रिटिश भारत की सेना में भरती नहीं होगा। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी एक इसी तरह का प्रस्ताव पारित कर कहा कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत का उत्पीड़न कर रही ब्रिटिश सरकार की सेवा कोई भारतीय नहीं करेगा।
असहयोग आंदोलन शुरू करने से पूर्व गांधीजी ने अपनी ‘केसर-ए-हिन्द‘ की उपाधि जो कि उन्हें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सरकार को सहयोग के बदले प्राप्त हुई थी, वापस कर दी। इसका अनुसरण सैकड़ों अन्य लोगों ने भी किया। जमनालाल बजाज ने अपनी ‘राय बहादुर‘ की उपाधि वापस कर दी।
इसके अलावा भी कई राज्यों के लोगों ने अलग-अलग तरीके से सरकार का विरोध किया। वहीं इस पूरे आंदोलन के दौरान हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने और छुआछूत को दूर करने की कोशिश की गई। इसके साथ ही इस आंदोलन की खास बात यह रही कि इस आंदोलन में अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए आंदोलन को आगे बढ़ाया गया।
आपको बता दें कि साल 1919 के सुधार अधिनियमों के उद्घाटन के लिए ‘ड्यूक ऑफ कामंस ‘ के भारत आने पर जमकर विरोध किया गया। इस दौरान कई जगहों पर हड़ताल कर इसका विरोध किया किया गया । जिसके बाद मुंबई समेत कई जगहों हिंसक वारदातों को भी अंजाम दिया गया।
वहीं धीरे-धीरे असहयोग आंदोलन प्रभावी होता जा रहा था। यही नहीं इस आंदोलन ने कई और स्थानीय आंदोलनों को बल दिया। मई 1921 में गांधीजी तथा भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड रीडिंग के बीच एक बैठक हुई। जिसमें तत्कालीन वायसराय लार्ड रीडिंग ने गांधी जी से गांधीजी से मांग की थी कि, वह अली बंधुओं से अपने उस भाषण को वापस लेने का आग्रह करें जिसके कारण व्यापक पैमाने पर हिंसा हो रही थी।
फिलहाल गांधी जी ने सरकार की इस मांग को ठुकरा दिया। जिसके बाद दिसम्बर 1921 में सरकार ने आंदोलनकारियों के खिलाफ दमनकारी नीति अपना ली और स्वयंसेवी संगठनों को अवैध घोषित कर दिया गया, सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, प्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया।
इसके अलावा गांधीजी, आंदोलन के प्रमुख नेता मोहम्मद अली जिन्नाह, मोतीलाल नेहरु, चित्तरंजन दास, लाला लाजपत राय, मौलाना अबुल कलाम आजाद, राज गोपाला चारी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल समेत कई नेता गिरफ्तार कर लिए गए।
इसके बाद 1 फरवरी, 1922 को गांधीजी ने घोषणा कर कहा कि अगर सरकार राजनीतिक बंदियों को रिहा कर नागरिक स्वतंत्रता बहाल नहीं करेगी और प्रेस से नियंत्रण नहीं हटाएगी तो वे देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने के लिये बाध्य हो जायेंगे लेकिन बाद में जब हिंसा ज्यादा बढ़ने लगी तो गांधी जी ने ये आंदोलन वापस ले लिया।
क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि भारतीयों ने अहिंसा के सिद्धांत को अच्छी तरह नहीं सीखा है। ये आंदोलन धीमे-धीमें और ज्यादा हिंसक और थकानेवाला बनता जा रहा था। वहीं सरकार भी किसी तरह से समझौतावादी रूख अपनाने के लिए तैयार नहीं थी।
इसलिए ऐसी स्थिति में इतने बड़े स्तर पर इस तरह के आंदोलन को बहुत ज्यादा नहीं खींचा जा सकता था। वहीं खिलाफत भी कुछ समय बाद अप्रासंगिक हो गया था। क्योंकि नवंबर 1922 में तुर्की की जनता ने मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और सुल्तान के सभी अधिकार भी छीन लिए गए।
वहीं जिसके लिए ये आंदोलन छेड़ा गया था, उसके लिए खलीफा का पद खत्म कर तुर्की में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना कर दी गई। इसके साथ ही पूरी तुर्की में यूरोप की तर्ज पर विधिक व्यवस्था की स्थापना भी की गई और महिलाओं को व्यापक अधिकार दे दिए गए। शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया गया और आधुनिक उद्योगों एवं कृषि को प्रोत्साहित किया गया। वहीं 1924 में खलीफा का पद को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया।
असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन – Non Co-operation And Khilafat Movement
- असहयोग आंदोलन एक मिला जुला परिणाम था जिसमे शामिल घटनाए जैसे के जालियानवाला बाग हत्याकांड, जुलमी रौलट कानून, अंग्रेजो द्वारा भारत की धन संपदा की लुट, तथा अंग्रेजो के रोजमर्रा के सभी वर्गो के उपर होनेवाले जुल्म थे। वही खिलाफत आंदोलन एक तरह से असहयोग आंदोलन का हिस्सा था, जिसकी प्रमुख वजह तुर्की के खलिफा के पद को लेकर भारत के मुस्लिमो मे उमडे भारी अस्वस्थता, असुरक्षितता तथा गुस्से का प्रतिक था।
- असहयोग आंदोलन का मूलमंत्र संपूर्ण बहिष्कार था जिसमे किसी भी अंग्रेजी वस्तूओ को ना खरीदने का देश की जनता ने महात्मा गांधी जी के साथ संकल्प लिया था। इसमे अंग्रेजी शिक्षा पर भी बहुत से लोगो ने बहिष्कार किया था, तथा देशभर मे अंग्रेजी वस्तूओ का तथा कपडो का दहन किया गया था। देश मे राष्ट्रीय पाठशाला लोकमान्य तिलक के नेतृत्व मे पहले ही शुरू की गई थी, जिसके प्रचार प्रसार मे बढोतरी होने लगी थी तथा स्वदेशी वस्तुओ के उपयोग पर अधिक जोर दिया गया। खिलाफत आंदोलन से देश के मुस्लिम वर्ग राष्ट्रीय आंदोलन से जुडे जिसने असहयोग और खिलाफत दोनो आंदोलन के माध्यम से अंग्रेजो पर दबाव बढने लगा था।
- बात करे असहयोग आंदोलन की तो इस मे देश के सभी आयु तथा वर्ग के लोग जुडे थे, ये आंदोलन शुरू मे इतना प्रभावी था के सभी को लग रहा था के अंग्रेजो के भारत मे सत्ता के दिन मानो खत्म होने की कगार पर है इन जैसे हालात उस समय देखने को मिले थे। खिलाफत आंदोलन केवल भारत के मुस्लिमो द्वारा तुर्की के खलिफा के समर्थन मे किया गया था, जिसमे स्पष्ट रूप से भारत का इस मुद्दे से कोई संबंध दिखाई नही पडता था। हालाकि इन दोनो आंदोलन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को बल और स्फूर्ती देने का कार्य किया था।
- १९२२ मे चौरीचौरा मे हुये हिंसक झुंड के हमले ने पुलिस चौकी को जलाया गया था जिसमे कुछ पुलिस और लोगो की मौत ने असहयोग आंदोलन को हिंसा के मोड पर लाकर रख दिया था। महात्मा गांधी पूर्ण रूप से अहिंसा के साथ आंदोलन के पक्ष मे थे जिसमे इस घटना ने उन्हे काफी आहत कर दिया था।
- इसका नतीजा ये हुआ के १९२२ को असहयोग आंदोलन को बर्खास्त किया गया था। वही साल १९२४ मे कमाल पाशा के नेतृत्व मे तुर्की मे जनतांत्रिक सरकार के गठन के साथ खलिफा के पद को पूर्णतः समाप्त कर दिया गया था, इस घटना के साथ खिलाफत आंदोलन भी पुरी तरह से समाप्त किया गया।
Khilafat Movement Images
खिलाफत आंदोलन के बारे मे संक्षिप्त मे जानकारी – Short Note on Khilafat Movement
- भारत के मुस्लिमो द्वारा तुर्की के सुलतान खलिफा के समर्थन मे खिलाफत आंदोलन किया गया था।
- खिलाफत आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा आयोजित किये गये असहयोग आंदोलन से जुडा हुआ आंदोलन था जिसका प्रमुखता से उद्देश्य ब्रिटीश सरकार का विरोध करना था।
- खिलाफत आंदोलन का तुर्की मे हुये राजनितिक और धार्मिक हलचल तथा उथल पुथल से अस्पष्ट रूप से संबंध था, इसका स्पष्ट रूप से भारत के मुस्लिमो से कोई संबंध नही था।
- इस आंदोलन के माध्यम से भारत का मुस्लिम समुदाय ब्रिटेन और ब्रिटीश सरकार का विरोध करना चाहते थे, साथ मे तुर्की के खलिफा को किसी भी प्रकार से कोई भी नुकसान ब्रिटीश सरकार द्वारा ना पहुचाया जाये ये उनकी जाहिर तौर पर मांग थी।
- भारत के राष्ट्रीय स्तर के असहयोग आंदोलन को खिलाफत आंदोलन ने काफी ज्यादा बल देने का कार्य किया जिसमे इन सभी गतीविधियो मे मुस्लिमो का राष्ट्रीय स्तर पर किये गये आंदोलन मे सहभाग देखने को मिला था।
- हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतिक के रूप मे भी खिलाफत आंदोलन को देखा गया, जिससे निश्चित ही कही ना कही ब्रिटीश सरकार पर दबाव बनाने का कार्य हुआ था।
- कमाल पाशा द्वारा साल १९२४ मे तुर्की मे लोकतांत्रिक सत्ता स्थापित करने के साथ खलिफा पद को बर्खास्त करने के वजह से भारत मे खिलाफत आंदोलन को समाप्त किया गया।
इस विषय पर अधिकतर बार पुछे गये सवाल- FAQ
- खिलाफत आंदोलन क्यो शुरू किया गया था? (Why was Khilafat Movement Started?)
जवाब: प्रथम विश्वयुद्ध मे ब्रिटेन द्वारा तुर्की की हुई हार की वजह से तुर्की मे अस्थिरता का माहौल निर्माण हुआ था, दुसरी ओर तुर्की का सुलतान खलिफा दुनियाभर के मुस्लिमो का धर्मगुरू हुआ करता था। इस लिये भारत के मुस्लिमो को लगता था के ब्रिटीश सरकार द्वारा खलिफा को नुकसान पहुचाया जा सकता है या फिर खलिफा का भूभाग छिन लिया जा सकता है। जिस से इस्लाम खतरे मे पड सकता है जिस से भारत मे बसे मुस्लिमो मे डर और असुरक्षितता का भाव था जिसके लिये उन्होने भारत मे ब्रिटीश सरकार के खिलाफ आंदोलन छेडा था जो के “खिलाफत आंदोलन”के नामसे प्रसिध्द हुआ।
2. खिलाफत आंदोलन की शुरुवात किसने की थी? (Who Started Khilafat Movement?)
जवाब: शौकत अली, मौलाना मोहम्मद अली जौहर,हकीम अजमल खान और अबुल कलाम आजाद इत्यादी मुस्लिम नेताओ के नेतृत्व मे खिलाफत आंदोलन की शुरुवात हुई थी।
3. खिलाफत आंदोलन की शुरुवात कब हुई थी? (When was Khilafat Movement Started?)
जवाब: १७ अक्टूबर १९१९ को खिलाफत आंदोलन की शुरुवात हुई थी।
4. राष्ट्रीय स्तर पर खिलाफत आंदोलन दिन कब मनाया जाता है? (Khilafat Movement Day)
जवाब: १७ अक्टूबर को।
5. खिलाफत आंदोलन की वजह से प्रसिद्धी तथा चर्चा मे आये अली बंधू का नाम क्या था? (Who Led the Khilafat Movement in Bombay?)
जवाब: शौकत अली और मोहम्मद अली जौहर।