गुलज़ार साहिब की कुछ कविताएँ | Gulzar Poetry

संगीत बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी का पसंद हैं, आज कल हर कोई किसी भी जगह आसानी से म्यूजिक सुन सकता हैं। और वो म्यूजिक हमारे पसंदीदा गीतकार का हो तो उसे सुनने का मजा ही कुछ और हैं। आज एक ऐसे ही एक प्रसिद्ध महान गीतकार की लिखी कुछ कविताएँ आपके लिए लायें हैं, उनका नाम हैं सम्पूर्ण सिंह कालरा जिन्हें सारी दुनिया गुलज़ार के नाम से जानती हैं। वह एक कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक, नाटककार तथा हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध गीतकार हैं। आईये देखते हैं Gulzar Poetry – गुलज़ार साहिब की कुछ कविताएँ।

Gulzar Poetry in Hindi

गुलज़ार साहिब की कुछ कविताएँ – Gulzar Poetry

Gulzar Poem 1

“हमको मन की शक्ति देना”

हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरो की जय से पहले, ख़ुद को जय करें।

भेद भाव अपने दिल से साफ कर सकें
दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके
झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें
दूसरो की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना।

मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर
ख़ुद पर हौसला रहें बदी से न डरें
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

Gulzar Poem 2

“किताबें!”

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं।
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं।
अब अक्सर।
गुज़र जाती हैं ‘कम्प्यूटर’ के पदों पर।
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ।।।।
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके ‘सेल’ कभी मरते नहीं थे,
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,
जो रिश्ते वो सुनाती थीं।
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं।
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,
बहुत-सी इस्तलाहें हैं,
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला।
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है।
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर।
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी।
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

Gulzar Poem 3

“रात चाँद और मैं”

उस रात बहुत सन्नाटा था
उस रात बहुत खामोशी थी
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात चाँद और मैं तीनो ही बंजारे हैं
तेरी नाम पलकों में शाम किया करते हैं
कुछ ऐसी एहतियात से निकला है चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम
क्या चाँद और ज़मीन में भी कोई खिंचाव है
रात चाँद और मैं मिलते हैं तो अक्सर हम
तेरे लेहज़े में बात किया करते हैं
सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है
सहर में आने से पहले बिक भी जाते हैं
बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का
बस इक पानी की आवाज़ लपलपाती है
की घात छोड़ के माझी तमामा जा भी चुके हैं
चलो ना चाँद की कश्ती में झील पार करें
रात चाँद और मैं अक्सर ठंडी झीलों को
डूब कर ठंडे पानी में पार किया करते हैं

Gulzar Poem 4

“ख़ुदा”

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया।
तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया।
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।
मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,
और रूह बचा ली,
पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी।

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2 COMMENTS

  1. सुंदर कविताओं का समूह बना रखा है आपने , ना कही कम नहीं कुछ ज़्यादा है ।

    • शुक्रिया विशाल जी, गुलजार साहब की कविताएं वाकई दिल खुश करने वाली हैं, जो कि पाठकों के दिल में एक अलग भाव पैदा करती हैं। हम अपनी वेबसाइट में आगे भी इस तरह के पोस्ट अपलोड करते रहेंगे।

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