Jhansi ki Rani Essay in Hindi
रानी लक्ष्मी बाई इतिहास की ऐसी वीरांगना थीं, जिन्होंने अपने साहस से न सिर्फ अंग्रेजों के छक्के उड़ा दिए थे, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाकर बड़े-बड़े योद्धाओं को भी आश्चर्यचकित कर दिया था।उनके साहस और वीरता के चर्चे आज भी होते है।
झांसी के रानी लक्ष्मीबाई ने अपने साहस और पराक्रम से पूरी भारतीय वसुंधरा को गौरान्वित किया है, उनकी वीरगाथा आज भी नौ जवानों के दिल में देश भक्ति की भावना पैदा करती है और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के विषय पर कई बार स्कूलों में आयोजित परीक्षाओं में बच्चों से निबंध लिखने के लिए कहा जाता है, इसलिए आज हम आपको इस पोस्ट में इस विषय पर निबंध उपलब्ध करवा रहे हैं जो कि इस प्रकार है –
झांसी की रानी “रानी लक्ष्मीबाई” पर निबंध – Essay on Jhansi Ki Rani in Hindi
प्रस्तावना
झांसी की रानी के अद्भुत साहस और पराक्रम के किस्से आज भी काफी मशहूर हैं, जिस तरह उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक वीर पुरुष की तरह अपने साहस का परिचय दिया था, वो काफी प्रशंसनीय है।
झांसी की रानी की बहादुरी के सामने अंग्रेज भी मत्था टेकते थे और उनसे बचते थे। वीरांगना लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन में तमाम संघर्षों के बाद भी इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अपनी विजयगाथा लिखी और अपने राज्य की स्वतंत्रता की लड़ाई में वे वीरगति को प्राप्त हुईं एवं दुनिया के लिए अपने साहस, पराक्रम और देशभक्ति की एक अनूठी मिसाल कायम की साथ ही समस्त नारी शक्ति का हौसला बढ़ाया। उनके बारे में यह कहावत काफी लोकप्रिय है –
“बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।”
वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का प्रारंभिक जीवन बचपन एवं शिक्षा – Rani Laxmi Bai Information in Hindi
आत्मविश्वासी और साहसी वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई 19 नवंबर, साल 1828 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी के भदैनी नगर में जन्मी थी। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका तांबे था, जिनके नाम पर हाल ही एक फिल्म “मणिकर्णिका” भी रिलीज हुई थी, जिसमें अभिनेत्री कंगना रनौत ने झांसी की रानी का किरदार निभाया था।
हालांकि, रानी लक्ष्मीबाई को मर्णिकार्णिका नहीं बल्कि मनु बाई के नाम से पुकारा जाता था। इनके पिता एक महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे, जबकि माता भागीरथीबाई संस्कारी और धर्म मे विश्वास रखने वाली एक घरेलू महिला थी।
रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी थी, जिसे उनके पिता मोरोपन्त तांबे ने शुरुआत में ही भांप लिया था और उस दौर में जब लोग अपनी बेटियों की शिक्षा पर ज्यादा महत्व नहीं देते थे, तब उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को घर पर ही शिक्षा ग्रहण करवाई।
इसके साथ ही एक वीर योद्धा की तरह निशानेबाजी, घेराबंदी, युद्ध की शिक्षा, सैन्य शिक्षा, घुड़सवारी, तीरंदाजी, आत्मरक्षा आदि की भी ट्रेनिंग दिलवाई, घुड़सवारी और अस्त्र-शस्त्र चलाना मनु के बचपन में प्रिय खेल थे।
मनुबाई बेहद कम उम्र में ही शस्त्र विद्याओं में निपुण हो गई थी। बाद में एक साहसी योद्दा की तरह वे एक वीर रानी बनी और लोगों के सामने अपनी वीरता की मिसाल पेश की।
विवाह के बाद पड़़ा रानी लक्ष्मीबाई नाम:
बाल विवाह की प्रथा के अनुरुप कर्तव्य परायण और स्वाभिमानी वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का विवाह 14 साल की छोटी सी उम्र में झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवलेकर के साथ करवा दिया गया। विवाह के बाद उनका नाम मनुबाई से बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया।
रानी लक्ष्मीबाई के जीवन का सबसे दुखद समय:
रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी शादी के कुछ दिनों बाद दामोदार राव नाम के पुत्र को जन्म दिया, जिससे उनके जीवन की खुशियां और भी ज्यादा बढ़ गईं, लेकिन दुर्भाग्यवश वो ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रह सका, सिर्फ 4 महीने बाद ही उनके बच्चे की मौत हो गई।
जिसके बाद उनके परिवार पर संकट के बादल छा गए। वहीं रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव अपने पुत्र खोने का दुख नहीं सहन कर सके और उन्हें बीमारी ने घेर लिया। इसी दौरान दोनों ने रिश्तेदार का पुत्र गोद लिया, जिसका पहले नाम आनंद राव रखा, फिर बाद में नाम बदलकर दामोदर राव कर दिया।
वहीं महाराज गंगाधर राव की बीमारी ने विकराल रुप ले लिया और 21 नवंबर साल 1853 में वे दुनिय छोड़कर चले गए। यह रानी लक्ष्मीबाई के जीवन का सबसे कठिन समय था।
अपने पुत्र को खोना और फिर पति की मौत से रानी लक्ष्मीबाई काफी आहत हुईं, लेकिन इस भयावह स्थिति में भी कभी कमजोर नहीं पड़ी और उन्होंने अपने राज्य का काम-काज संभालने का फैसला दिया।
साहसी रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष:
रानी लक्ष्मीबाई के उत्तराधिकारी बनने पर क्रूर ब्रिटिश शासकों ने बहुत विरोध किया। दरअसल, ब्रिटिश सरकार के नियम के मुताबिक राजा की मौत के बाद अगर खुद का पुत्र हो तो उसे उत्तराधिकारी बनाया जाता है, नहीं तो उसका राज्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में मिला दिया जाता था।
जिसके चलते रानी लक्ष्मीबाई को काफी संघर्ष करना पड़ा क्योंकि ब्रिटिश अधिकारी उनके राज्य झांसी को हथिया लेना चाहते थे।
“मै झांसी नहीं दूंगी” – Rani Laxmi Bai Dialogue
ब्रिटिश अधिकारियों ने 7 मार्च, 1854 को रानी लक्ष्मीबाई का राज्य झांसी को ब्रिटिश सम्राज्य में मिलाने की भी घोषणा कर दी, जिसके बाद रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश शासकों के आदेश का उल्लंघन करते हुए कहा कि “मै झांसी नहीं दूंगी” जिसके चलते ब्रिटिश शासकों के खिलाफ विद्रोह तेज हो गया।
इसके बाद झांसी की रानी ने अपना राज्य के बचाव के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के मकसद से एक सेना तैयार की। उनकी इस सेना में महिलाएं भी शामिल थी और लगभग 1400 सैनिक शामिल थे।
अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की इस लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई के साथ तात्या टोपे, नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, समेत कई लोग थे।
1857 के स्वत्रंता संग्राम में वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई की भूमिका:
10 मई, 1857 को अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश ने एकजुट होकर विद्रोह शुरु किया। इस दौरान ब्रिटिश सैनिकों ने अपनी बंदूकों में गौमांस और सूअर की परत चढ़ा दी थी, जिसके चलते भारतीय हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का काफी ठेस पहुंचा। वहीं भारतीयों एकता और आक्रोश देखकर ब्रिटिश सरकार ने महारानी लक्ष्मीबाई को झांसी सौंप दिया।
लेकिन, कुछ दिन बाद कूर ब्रिटिश अधिकारियों ने झांसी के पास ओरछा और दतिया पर हमला कर दिया, लेकिन इस बार भी झांसी की रानी की बहादुरी के सामने अंग्रेजों को झुकना पड़ा।
साल 1858 में झांसी का युद्ध:
23 मार्च, साल 1858 में अंग्रेजों ने एक बार फिर झांसी पर कब्जा करने के उद्देश्य से हमला किया और यहां से झांसी का ऐतिहासिक युद्ध शुरु हुआ। जिसके बाद लक्ष्मीबाई की सेना ने काफी बहादुरी से अंग्रजों का सामना किया।
यह लड़ाई करीब 7 दिन तक चली। इस लड़ाई में अंग्रजों ने झांसी के किले की दीवारें तोड़कर यहां अपना कब्जा कर लिया।
इसके बाद भी रानी लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी और अपने दत्तक पुत्र आनंद राव उर्फ दामोदर राव को पीठ पर कसकर पूरी बहादुरी के साथ अंग्रेजों का डटकर सामना किया, लेकिन इस तरह से लंबा युद्ध लड़ना मुमकिन नहीं था।
इस लड़ाई में लक्ष्मीबाई का घोड़ा भी वीरगति को प्राप्त हुआ, जिसके बाद रानी लक्ष्मीबाई ने खुद को और अपने दत्तकपुत्र को किसी तरह अंग्रेजों से बचाने की कोशिश की। हालांकि, इस बार अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया था।
तात्या टोपे का साथ:
इसके बाद झांसी की रानी कालपी पहुंची, जहां के पेशवा ने उन्हें शरण दी। यहां उन्हें तात्या टोपे समेत मर्दनसिंह, नाना साहब, अजीमुल्ला का साथ मिला। इसके बाद फिर रानी लक्ष्मीबाई ने अपने साथियों के साथ ग्वालियर पर हमला किया और जीत हासिल की।
वीरांगना लक्ष्मीबाई हुई वीरगति को प्राप्त:
17 जून, साल 1858 में रानी लक्ष्मी बाई ने अपने जीवन की अंतिम लड़ाई किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई में उन्होंने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र का मोर्चा संभाला। इस युद्ध में महिलाएं भी शामिल हुई। हालांकि, इस लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह घायल हो गई, और कोटा के सराई पास वीरगति को प्राप्त हुईं।
उपसंहार:
इस तरह रानी लक्ष्मीबाई तमाम संघर्षों का सामना करते हुए अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती रहीं और अंग्रेजों को अपनी बहादुरी और सैन्य शक्ति का एहसास करवाया उनके साहस और पराक्रम की तारीफ उनके दुश्मनों ने भी की थी।
वहीं उनकी वीरता पर कई किताबें भी लिखी गईं हैं और फिल्म भी बनाई गईं हैं। यही नहीं भारतीय स्कूल के पाठ्यक्रम में भी उनकी वीरता की कविताएं शामिल की गई हैं। उनमेसे “झांसी की रानी” यह कविता काफी मशहूर हैं।
रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा युगों-युगांतर तक गाई जाएग और भारतीयो के अंदर हमेशा एक नया जोश भरने का काम करेगी और देशभक्ति की भावना विकसित करेगी। रानी लक्ष्मी बाई जैसी साहसी वीरांगनाओं के जन्म से भारतभूमि धन्य हो गई।
इतिहास की महान वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई पर निबंध – Rani Laxmi Bai Essay in Hindi
प्रस्तावना
रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन में तमाम संघर्षों को झेलते हुए स्वाधीनता की पहली लडाई में अपने अदम्य साहस का परिचय दिया। उनका साहसिक जीवन न सिर्फ महिलाओं के मन में एक नया जोश भरता है और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, बल्कि कई युवाओं को भी देशभक्ति के लिए प्रेरित करता है।
उन्होंने जिस तरह अपने राज्य झांसी को अंग्रेजों के चंगुल से बचाने के लिए उनके खिलाफ बिगुल फूंका था, वो वाकई प्रशंसनीय है, उनकी वीरता के किस्से आज भी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे गए हैं।
रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय संक्षिप्त में – Rani Lakshmi Bai Information in Hindi
इतिहास की महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई, 19 नवंबर, साल 1828 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी के भदैनी नगर में मर्णिकार्णिका तांबे के रुप में जन्मी थी। बचपन में उन्हें लोग “मनुबाई” कहकर पुकारते थे। उनके पिता मोरोपंत तांबे आधुनिक सोच रखने वाले महान व्यक्तित्व थे जो कि पेशवा के रुप में काम करते थे, उन्होंने शुरु से ही रानी लक्ष्मीबाई को एक महान योद्धा बनने की ट्रेनिंग दी थी, जबकि उनकी मां भागीरथीबाई एक घरेलू महिला थी, जब रानी लक्ष्मी बाई महज 4 साल की थी, तब उनके सिर से मां का साया उठ गया था, इसके बाद उनके पिता ने उनकी परवरिश की।
महारानी लक्ष्मीबाई बचपन में ही घु़ड़सवारी, निशानेबाजी और युद्ध-शस्त्र की कला में निपुण हो गईं थी। बाजीराव के बेटों के साथ रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी शिक्षा ली थी। वे न सिर्फ अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण थीं, बल्कि धार्मिक कार्यों में भी उनकी काफी रुचि थी।
14 साल की छोटी सी उम्र में उनकी शादी झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवलेकर के साथ हो गई थी, शादी के बाद उनका नाम मनु से बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया था। शादी के बाद उन्हें एक बेटा हुआ, लेकिन 4 महीन बाद उसकी मौत हो गई, जिसके दुख में उनके पति भी काफी बीमार रहने लगे।
इसके बाद उन्होंने एक पुत्र को गोद ले लिया, जिसका नाम पहले आनंद राव रखा, लेकिन बाद में इसे बदलकर दामोदर राव कर दिया।
रानी लक्ष्मीबाई की का संघर्ष और शासन – Jhansi Ki Rani Story in Hindi
पुत्र के विलाप में रानी लक्ष्मी बाई के पति महाराज गंगाधर राव को बीमारी ने घेर लिया, जिसके चलते 21 नवंबर, साल 1853 में उनकी मौत हो गई। इसके बाद रानी के जीवन में संकट के बादल छा गए, हालांकि साहसी रानी ने विपरीत परिस्थित में भी धैर्य नहीं खोया और खुद झांसी राज्य का उत्तराधिकारी बनने का फैसला लिया। हालांकि रानी के उत्तराधिकारी बनने का अंग्रेजों ने जमकर विरोध किया।
दरअसल, अंग्रेजों के दौर में यह नियम था कि दत्तक पुत्रों को उत्तराधिकारी बनने का हक नहीं दिया जाता था और ऐसे राज्य को अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी में मिला लेते थे। रानीलक्ष्मी बाई ने जैसे राज्य की कमान संभाली, अंग्रेज उन्हें एक साधारण और कमजोर महिला समझ उन्हें परेशान करने लगे, अंग्रेजों ने उनके राज्य का खजाना जब्त कर लिया, उनकी सालना आय से कटौती की।
यही नहीं रानी लक्ष्मी बाई को इस हद तक परेशान किया गया कि उन्हें अपना किला छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों के अत्याचारों के सामने कमजोर नहीं पड़ी, बल्कि उन्होंने उनका वीरता से सामना किया और अपने राज्य को बचाने के लिए संकल्पों के प्रति अडिग रहीं।
अंग्रेजों ने 7 मार्च, 1854 को रानी लक्ष्मीबाई के राज्य को ब्रिटिश सम्राज्य में मिलाने की घोषणा की थी, लेकिन वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों के सामने झुकी नहीं बल्कि उन्होंने अंग्रजों के आदेश का धज्जियां उड़ाते हुए कहा कि वे किसी भी हाल में अपने राज्य को अंग्रेजों को नहीं सौंपेंगी और फिर उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया।
अंग्रेजों के खिलाफ रानी लक्ष्मबाई ने एक बड़ी सेना तैयार की, जिसमें मुगल सम्राट बहादुर शाह, बेगम हजरत महल, तात्या टोपे, बेगम जीनत महल समेत तमाम लोग शामिल थे।
स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मी बाई की भूमिका – Rani Lakshmi Bai Freedom Fighter
महारानी लक्ष्मीबाई ने पूरी तैयारी के साथ 10 मई, 1857 में अंग्रजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। इस दौरान ब्रिटिश सैनिको ने अपनी बंदूकों में गौमांस और सूअर के मांस की परत चढ़ा ली, जिससे हिन्दू भावनाएं आहत हुईं और यह विद्रोह आग की तरह पूरे देश में भड़क उठा, एवं लोगों के मन में अंग्रेजों के प्रति और अधिक नफरत पैदा हो गई, वहीं भारतीय एकता और अखंडता को देख अंग्रेजों को लक्ष्मीबाई का राज्य वापस करने को मजबूर होना पड़ा।
झांसी का युद्ध – Battle Of Jhansi Fort
रानी के साहस और वीरता के आगे अंग्रेजों को कई बार झुकना पड़ा था, जिसके चलते अंग्रेज बार-बार झांसी राज्य पर हमला करते थे। अंग्रेजों ने जब 23 मार्च, 1858 में एक बार फिर वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के राज्य पर हमला किया और इस लड़ाई में उन्होंने झांसी के किले की दीवारें तोड़ कर अपना कब्जा कर लिया।
इस लड़ाई में अंग्रेजों का सामना करते हुए रानी लक्ष्मीबाई का घोड़ा मर गया, जिसके बाद रानी लक्ष्मीबाई ने अपने पुत्र को किसी तरह अंग्रेजों से बचाया, हालांकि इस बार अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया था।
इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे, नाना साहब के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर हमला कर जीत हासिल की।
इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई ने अपने जिंदगी की अंतिम लड़ाई किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ लड़ीं और 17 जून, साल 1858 में कोटा के सराई के पास वीरगति को प्राप्त हुई।
उपसंहार
रानी लक्ष्मीबाई इस तरह पूरे जीवन भर अपने राज्य को बचाने के लिए लड़ती रहीं और उन्होंने अपने अदम्य शौर्य और साहस से अंग्रेजों को अपनी शक्ति का एहसास दिलवाया एवं महिलाओं के लिए मिसाल पेश की। रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखी गई है।
रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कविताएं भारतीय पाठ्यक्रम में भी शामिल की गईं है, जो कि बच्चों के मन में देशभक्ति की भावना पैदा करती हैं। झांसी की रानी के बारे में यह कहावत काफी लोकप्रिय है-
”बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।”
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