Bodhidharma History in Hindi
बोधिधर्म एक प्रसिद्ध भारतीय बौद्ध भिक्षु थे, जिन्हों चीन में बोध धर्म की स्थापना की थी उन्हें बोधी धर्मन के नाम से भी जाना जाता है। बोधिधर्म को मार्शल आर्ट्स के जनक के रुप में भी जाता जाता है। वहीं चीन में मार्शल आर्टस् की कला को लाने का पूरा श्रेय इन्हीं को जाता है।
बोधिधर्म ने न सिर्फ चीन में मार्शल आर्ट्स की कला को इजाद किया बल्कि चीन में सालों पर्वत में रहकर अपने अनुयायियों को इस अद्भुत कला को सिखाया एवं बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का जमकर प्रचार-प्रसार किया।
आपको बता दें कि कुंग-फू मार्शल आर्ट्स का प्रमुख अंग है, जिसे पूरी दुनिया के लोग चीन सीखने आते हैं, इस आधुनिक मार्शल आर्ट्स की प्रणाली को बोधिधर्मन द्धारा ही लाया गया था। जापान में बोधि धर्म को दारुमा और चीन में ‘ता मो’ के नाम से जाना जाता है।
वह एक उदार चरित्र एवं विलक्षण प्रतिभा वाले महान बौद्ध भिक्षु थे, जिनके महान विचारों का लोग आज भी अनुसरण करते हैं। इसके साथ ही वे ध्यान साधना, योगा, आयुर्वेद और लोकअवतार सूत्र के बेहद प्रसिद्ध प्रशिक्षक थे।
कुछ इतिहासकारों के मुताबिक बोधिधर्म को बौद्ध धर्म का 28 वां आचार्य अर्थात बौद्ध गुरु माना गया है। वहीं भारत में बोधिधर्म को उस परंपरा का आखिरी गुरु माना जाता है, जिसे गौतम बुद्ध द्धारा शुरु की गई थी।
आपको बता दें कि बोधिधर्म एक शहजादे थे, जिन्होंने साधु बनने के लिए सभी ऐशो-आराम एवं संसारिक सुखों का त्याग कर दिया था। आइए जानते हैं बोधिधर्म के इतिहास एवं इनके जीवन के बारे में कुछ ऐसे ही दिलचस्प और रोचक बातें –
बोधिधर्म का अनसुना इतिहास – Bodhidharma History in Hindi
बोधिधर्म के जन्म के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है, लेकिन इनका जन्म 5वीं और 6वीं शताब्दी के बीच में बताया जाता है। इतिहासकारों के मुताबिक बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत में पल्लव राज्य के एक शाही परिवार में हुआ था, जो कि कांचीपुरम के एक धनी राजा सुंगध के पुत्र थे।
ऐसा बताया जाता है, सभी तरह की शाही सुविधाएं और असीमित दौलत होने के बाबजूद भी बोधिधर्म को कोई भी राजशाही शौक की आदत नहीं थे एवं उन्हें संसारिक सुखों और मोह-माया से कोई लगाव नहीं था, इसलिए उन्होंने बेहद कम उम्र में भी अपना राजपाठ छोड़ दिया एवं बौद्ध भिक्षु बनने का फैसला ले लिया था।
आपको बता दें कि बोधिधर्म, अपने बचपन के दिनों से ही बौद्ध धर्म से बेहद प्रभावित हो गए थे। बोधिधर्म पर बौद्ध साधु और उनकी सरल, साधारण जीवन शैली एवं उनके महान विचारों का काफी गहरा प्रभाव पड़ा था। महज 7 साल की छोटी सी उम्र से ही वे अपने अलौकिक ज्ञान की शक्ति लोगों को दिखाने लगे थे।
इसके साथ ही बचपन में सांस लेने की परेशानी से निजात पाने के लिए बोधिधर्म योग के भी काफी करीब हो गए, यही नहीं उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती दिनों में लड़ने की भी कला सीखी थी, और इसमें वे निपुण हो गए थे, लेकिन उनका मन इन सब में नहीं रमा और फिर उन्होंने पूरी तरह बौद्ध धर्म अपनालिया और साधु बन गए।
बोधिधर्म ने महाकश्चप को बनाया था अपना गुरु – Bodhidharma Guru Maha Kasyapa
बौद्ध धर्म में गहरी रुचि होने की वजह से उन्होंने गुरु महाकाश्यप से ज्ञान अर्जित करना शुरु कर दिया और फिर ध्यान सीखने की कला से बौद्ध भिक्षु बनने की शुरुआत की। इसके बाद राजशाही जीवन त्यागकर उन्होंने अपने गुरु के साथ ही बौद्ध भिक्षुओं की तरह एक साधारण मठ में रहना शुरु कर दिया, जहां वे एक साधारण बौद्द भिक्षु की तरह सरल जीवन-यापन करते थे एवं गौतम बुद्ध द्धारा बताए गए उपदेशों का अनुसरण करते थे।
वहीं बौद्ध भिक्षु बनने से पहले इनका नाम बोधितारा था, जिसे बदलकर उन्होंने बोधिधर्म कर दिया।
आपको बता दें कि बोधिधर्म महज 22 साल की उम्र में ही पूर्णत: प्रबुद्ध हो गए थे, उन्होंने अपने गुरु के मार्गदर्शन से पूरे भारत में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करना शुरु कर दिया था। इसके बाद बोधिधर्म को महात्मा गौतम बुद्ध चलाई जा रही परंपरा का 28वां आचार्य बना दिया गया था।
वहीं बोधिधर्म की गुरु की मृत्यु के बाद, बोधिधर्मन ने अपना मठ का त्याग कर दिया और फिर अपने गुरु की इच्छा को पूरा करने के लिए वे बौद्ध धर्म के संदेश वाहक के रुप में चीन चले गए, जहां उन्होंने महात्मा बुद्ध के उपदेश और महान शिक्षाओं का जमकर प्रचार – प्रसार किया इसके साथ ही उन्होंने चीन में न सिर्फ बौद्ध धर्म की नींव रखीं बल्कि मार्शल आर्ट्स को भी इजाद किया। और यहीं से उन्हें एक अलग पहचान मिली।
बोधिधर्म की चीन यात्रा – Bodhidharma In China
बोधिधर्म चीन कैसे पहुंचे इसे लेकर विद्धानों के अलग-अलग मत है। उनके चीन जाने के वास्तविक मार्ग के संबंध में कोई भी पुख्ता जानकारी नहीं है। कुछ विद्धानों का मानना है कि बोधिधर्म समुद्र के मार्ग से मद्रास से चीन के गुआंगज़ौ प्रांत तक गए थे। जबकि कुछ विद्धानों का मानना है कि वे सबसे पहले पीली नदी से लुओयांग तक पामीर के पठार से होकर गए थे।
वहीं आपको बता दें कि लुओयांग उस समय बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए एक सक्रिय केंद्र के रूप में मशहूर था। बोधिधर्म की चीन यात्रा के संबंध में यह भी मशहूर है कि इस यात्रा में बोधिधर्म को करीब 3 साल का लंबा समय लग गया था।
चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के दौरान झेलना पड़ा था काफी विरोध:
जब चीन में बोधिधर्म ने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करना शुरु किया, उस समय उन्हें चीन के राजा और वहां के भिक्षुओं का भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा था।
वहीं बोधिधर्म का मानना था कि बौद्ध ग्रंथ, शास्त्र एवं शिक्षाएं ज्ञान प्राप्त करने के लिए महज एक मार्ग है, लेकिन सच्चा आत्मज्ञान सिर्फ कठिन अभ्यास द्धारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
कई इतिहासकारों के मुताबिक बोधिधर्मन ने प्रामाणिक ध्यान -आधारित बौद्ध धर्म की शिक्षा का बहिष्कार कर दिया था और एक नई उसूलों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म की शुरुआत की थी, जिसमें उन्होंने भगवान बुद्ध को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया, जिसकी वजह से उन्हें काफी परेशानियों का भी सामना करना पड़ा था, यहां तक की विरोध की वजह से उन्हें चीन के लुओयांग प्रांत को छोड़कर हेनान प्रांत में जाना पड़ा। जहां से उन्होंने चीन का प्रसिद्ध बौद्ध मठ शाओलिन मठ की यात्रा की।
बौद्ध धर्म में ध्यान को ज्यादा महत्व देने वाले बोधिधर्मन काफी परेशानियां, विरोध एवं उपहासों के बाबजूद भी अपने गुरु की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
28 वें बौद्ध गुरु बोधिधर्मन जब बौद्ध शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए चीन के प्रसिद्ध शाओलिन मठ पहुंचे, तो यहां भी उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा, यहां पर उन्हें कुछ भिक्षुओं ने इस मठ में प्रवेश देने से मना कर दिया।
जिसके बाद बोधिधर्म बिना किसी प्रतिक्रिया दिए हुए वहां से ध्यान लगाने के लिए पास के ही एक पहाड़ की गुफा में चले गए, जिसके बाद शाओलिन मठ के भिक्षुओं को लगा कि बोधिधर्म कुछ दिनों बाद इस गुफा से चले जाएंगे, लेकिन बोधिधर्म ने उस गुफा में लगातार 9 साल तक कठोर तप किया। इसी दौरान उन्होंने खुद को पूर्ण रुप से स्वस्थ रखने के लिए कुछ नई कसरतों का भी निर्माण किया।
वहीं बोधिधर्मन के त्याग, समर्पण एवं एकाग्रता को देखकर शाओलिन मठ के भिक्षु काफी प्रभावित हुए और न सिर्फ उन्हें शाओलिन मठ में घुसने की इजाजत दी, बल्कि उन्हें शाओलिन मठ का प्राचार्य भी बनाया। जिसके बाद यहां बोधिधर्म ने भिक्षुओं को कठोर तप और ध्यान के बारे में शिक्षा दी।
मार्शल आर्ट्स के ‘जनक’ बोधिधर्म – Bodhidharma Martial Arts
चीन में बौद्ध धर्म की नींव रखने वाले बोधिधर्म, प्राचीन भारत की कालारिपट्टू विद्या(मार्शल आर्ट) में भी निपुण थे। उन्हें आधुनिक मार्शल आर्ट्स कला के जन्मदाता कहा जाता है। वहीं मार्शल आर्ट्स के इतिहास से कुछ पौराणिक कथाओं में बोधिधिर्म के अलावा महर्षि अगस्त्य एवं भगवान श्री कृष्ण का भी नाम जुड़ा हुआ है।
शास्त्रों -पुराणों के मुताबिक महर्षि अगस्त्य ने दक्षिणी कलारिप्पयतु यानि बिना शस्त्र के लड़ने की कला को जन्म दिया, तो महर्षि परशुराम ने शस्त्र युक्त कलारिप्पयतु अपनी विद्या से विकसित किया, वहीं भगवान श्री कृष्ण ने शस्त्र और बिना शस्त्र के मेल की कालारिपयट्टू कला को विकसित किया, ऐसा कहा जाता है कि, श्री कृष्ण ने इस बिना शस्त्र से लड़ने की कला से एक दुष्ट का बुरी तरह संहार किया था।
शास्त्रों और धर्मग्रंथों के मुताबिक भगवान श्री कृष्ण ने जिस कला को इजाद किया था, वह अनूठी कला महान ऋषि अगत्स्य से होते हुए बोधिधर्म के पास आई थी और फिर बोधिधर्म ने मार्शल आर्ट्स के रुप में पूरी दुनिया में प्रचार-प्रसार किया।
महान बौद्ध भिक्षुओं में से एक एवं ऊर्जा से भरपूर बौद्ध धर्म प्रचारक बोधिधर्म से जुड़ी एक अन्य कथा के मुताबिक, बोधिधर्म जब शिओलिन मठ में जाकर अपने शिष्यों को ध्यान सिखा रहे थे, तब उन्होंने देखा कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण रुप से स्वस्थ नहीं है, और लंबे समय तक ध्यान करने में सक्षम नहीं है। तब बोधिधर्मन ने जो व्यायाम ध्यान के दौरान अपनी गुफा में किए थे, उसे शाओलिन मठ के लोगों को सिखाया, जो आगे चलकर मार्शल आर्ट/ कुंग फू के रुप में विख्यात हुए।
इससे लोगों की सेहत पर काफी हद तक सुधार आया और लोगों को हथियार के बिना लड़ने की अद्भुत कला सीखने को मिली, इस कला को सीखने से लोग खुद को काफी सुरक्षित भी महसूस करने लगे थे।
महान बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म के मार्शल आर्ट्स की इस अनूठी कला को लेकर यह भी प्रचलित है कि, एक बार चीन के गांव में कुछ हथियारबंद लुटेरों ने कब्जा कर लिया और वे लोगों को मारने लगे और जब बोधिधर्मन ने सब देखा तो उन्होंने अपने मार्शल आर्ट्स की विद्या से बिना किसी हथियार के सभी लुटुरों का सामना किया और गांव वालों को बचा लिया।
जिसके बाद गांव वालों के मन में उनके प्रति काफी सम्मान बढ़ गया एवं वे आश्चर्यजनक कला को सीखने के लिए चीन के लोग आगे आए। जिसके बाद बोधिधर्म ने आत्मक्षा की इस कला को गांव वालों को सिखाया। इस तरह उन्होंने इस अनूठी मार्शल आर्ट्स के माध्यम से लोगों से काफी लोकप्रियता भी बटोरी।
इसके बाद बोधिधर्म ने भारतीय श्वास व्यायाम एवं मार्शल आर्ट/ कुंग फू द्वारा अपनी शक्ति और संकल्प को आगे बढ़ाने का प्रयास किया, वहीं बाद में यह नई युद्ध विद्या चीन से निकल कर दुनिया कई अन्य देशों में फैल गई।
वहीं बोधिधर्म द्धारा सिखाई की इस नई विद्या को चीन में ‘जेन बुद्धिज्म’ का नाम दिया गया। इस अनूठी कला को इजाद करने के लिए बोधिधर्म का नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।
चाय के खोजकर्ता के रुप में बोधिधर्म – Bodhidharma Tea
आयुर्वेद, चिकित्सा, सम्मोहन एवं पंच तत्वों को अपने काबू में करने की अनोखी कला जानने वाले एक महान धर्म प्रचारक बोधिधर्म ने न सिर्फ मार्शल आर्ट्स की अद्भुत कला को इजाद किया बल्कि चाय की भी खोज की है, जिसे लोग आज बड़े चाव से पीते हैं।
चाय की खोज से बोधिधर्म की कई पौराणिक कथाएं भी जुड़ी हुई हैं, इससे जुड़ी कथा के मुताबिक आज से कई हजार साल पहले चीन का राजा वू जो कि बौद्ध धर्म का महान संरक्षक था, वह चाहता था कि भारत से कोई ऐसा चमत्कारिक महान बौद्ध भिक्षु आए तजो चीन में बौद्ध धर्म के महान शिक्षाओं एवं संदेशों का प्रचार-प्रसार करे साथ ही उनके मन कई सालों से इकट्ठे हुए कई तरह के दार्शनिक और धार्मिक प्रश्नों का उत्तर दे सकें।
जिसके बाद काफी इंतजार करने के बाद उसको खबर मिली कि दो महान भिक्षु, बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार करने के लिए चीन आ रहे हैं, जिसके बाद राजा भारत से आ रहे बौद्ध भिक्षुओं की स्वागत की तैयारी में लग गया।
वहीं महज 22 साल के बोधिधर्म एवं उनके शिष्य चीन पहुंचे, जिन्हें देखकर राजा वू आश्चर्यचकित रह गया, दरअसल राजा वू ने सोचा था कि कोई अनुभवी, बुजुर्ग, महाज्ञानी चीन में बौद्ध धर्म के दूत के रुप में आएगा, लेकिन राजा वू को तो ये दोनों युवा तो बिल्कुल साधारण से प्रतीत हो रहे थे, हालांकि राजा वू को बोधिधर्म के अतुलनीय एवं आलौकिक ज्ञान के बारे में अंदेशा नहीं था।
हालांकि, इसके बाद राजा वू ने चीन में आए दोनों बौद्ध भिक्षुओं का जोरदार स्वागत किया और फिर उनसे वर्षों से अपने मन में छिपाए हुए प्रश्नों को पूछने की शुरुआत की। सबसे पहले राजा बू ने बौद्ध धर्म के महान प्रचारक बौधिधर्म से पूछा कि ‘इस सृष्टि का स्रोत क्या है?’
राजा का यह प्रश्न सुनकर बोधिधर्म हंस पड़े एवं इस प्रश्न को मूर्खतापूर्ण कह कर खारिज कर दिया, जिसके बाद राजा वू ने खुद को काफी अपमानित महसूस किया, लेकिन फिर बाद में राजा वू ने अपने गुस्से को काबू में कर बोधिधर्म से दूसरा प्रश्न यह पूछा कि ”मेरे अस्तित्व का स्रोत क्या है?”
राजा के दूसरे सवाल को सुनकर बोधिधर्म फिर से हंस पड़े और इसे भी मूर्खतापूर्ण सवाल कहकर राजा से अन्य प्रश्न पूछने के लिए कहा।
इन दोंनो महत्वपूर्ण सवालों को बोधिधर्मन द्दारा बहिष्कृत किए जाने पर राजा क्रोध से भर गया और बोधिधर्मन के बौद्ध भिक्षु होने पर भी संदेह करने लगा एवं मन ही मन बोधिधर्म को ही मूर्ख समझने लगा।
लेकिन एक बार फिर राजा वू ने अपने गुस्से पर नियंत्रण किया और बोधिधर्मन से एक और सवाल पूछा कि “बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए मैंने कई ध्यान कक्ष बनवाए, हजारों उद्यान लगवाए, कई भूखे लोगों को भोजन करवाया समाज सेवा की एवं कई हजार अनुवादकों को प्रशिक्षित किया। मैंने इतने सारे प्रबंध किए हैं। क्या मुझे मुक्ति मिलेगी?”
राजा का यह सवाल सुनकर गंभीर होकर बोधिधर्मन ने उत्तर दिया कि तुम तो सातवें नरक में जाओगे।
दरअसल, बोधिधर्म के मुताबिक मस्तिष्क के सात स्तर होते हैं, अर्थात अगर कोई भी इंसान वह काम नहीं करता है, जो कि उस समय जरूरी है और किसी अन्य काम को करता है तो इसका मतलब है कि ऐसे इंसान का मस्तिष्क सबसे नीच किस्म का होता है, और उसे अपने जीवन में परेशानियां भोगनी ही पड़ती हैं।
बोधिधर्मन के मुताबिक, जो भी मनुष्य अच्छे काम करते हैं, वह यही उम्मीद करते हैं कि उनके साथ अच्छा होगा और लोग उनसे अच्छा व्यवहार करेंगे, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है, तब व्यक्ति की स्थिति वास्तव में किसी नरक से कम नहीं होती है, लेकिन राजा वू को बोधिधर्मन की यह बात समझ नहीं आई एवं वह और अधिक गुस्से से भर गया।
इसके बाद राजा वू ने बोधिधर्मन को अपने राज्य से निस्काषित कर दिया, लेकिन महान बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म को राजा वू की इस हरकत से कोई फर्क नहीं पड़ा और वे पास के ही पर्वतों पर जाकर ध्यान साधना में लग गए।
ऐसा माना जाता है कि, इस पर्वतमाला पर ध्यान करते-करते एक दिन महान बौद्ध भिक्षु सो गए, और इस बात को लेकर बोधिधर्मन को खुद पर इतना अधिक गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी आंख की पलकों को काटकर जमीन पर फेंक दिया, वहीं जिस जगह बोधिधर्मन ने अपनी आंख की कटी हुई पलकों को जमीन पर फेंका था, उस स्थान पर छोटी-छोटी हरे रंग की सुंदर पत्तियां उग आईं, जो कि बाद में चाय के रुप में जानी गई।
काफी खोज करने के बाद पाया गया कि अगर इन पत्तियों को उबालकर पिया जाए तो नींद भाग जाती है, अर्थात इसे पीकर पूरी तरह से सतर्क होकर ध्यान साधना की जा सकती थी। इस तरह बौद्ध भिक्षु बोधिधरम को चाय का खोजकर्ता के रुप में जाना गया। वहीं बोधिधर्मन जिस पर्वतमाला पर ध्यान करते थे, वो बाद में ‘चाय’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिष्य द्धारा दिया गया जहर – Bodhidharma Death
महान एवं ऊर्जावान बौद्ध धर्म प्रचारक की मृत्यु को लेकर भी विद्धानों के अलग-अलग मत हैं, कुछ विद्धानों मानना हैं कि बोधिधर्म की मृत्यु रहस्यमयी तरीके से चीन में हो गई थी।
जबकि कुछ का मानना है कि बोधिधर्म को उनके ही शिष्यों ने उन्हें उत्तराधिकारी नहीं बनाए जाने पर जहर देकर मार दिया।
इसके अलावा बोधिधर्म की मृत्यु से जुड़ी एक अन्य कथा के मुताबिक जब बोधिधर्म बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार एवं बौद्ध शिक्षाओं को जन-जन तक पुहंचाने के उद्देश्य से दूत बनकर चीन के नानयिन (नान-किंग) गांव में गए थे, तब इस गांव के कुछ भविष्यवक्ता एवं ज्योतिषियों ने इस गांव में किसी बड़ी आपदा और संकट आने की भविष्यवाणी की थी।
अर्थात जब बौद्ध धर्म के यह महान भिक्षु बोधिधर्म चीन के इस गांव में पहुंचे तो लोगों ने इन्हें ही संकट समझ लिया और उन्हें अपने गांव से बाहर निकाल दिया, जिसके बाद बोधिधर्म वहां से निकलकर पास के ही गांव में रहने लगे, लेकिन बोधिधर्मन के इस गांव के जाने के कुछ समय बाद ही इस गांव में महामारी का प्रकोप फैल गया, जिसकी चपेट में आने से गांव में कई लोगों की मौत हो गई, इससे पूरे गांव में हड़कंप मच गया।
दरअसल बोधिधर्मन एक प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य थे, और जब उन्हें इस गांव में महामारी फैलने की खबर मिली तो, तब उन्होंने कुछ विशेष जड़ी-बूटियों के माध्यम से गांव वालों को इस महामारी के प्रकोप से बचा लिया, जिसके बाद लोगों के मन में इनके प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया और फिर उन्होंने बोधिधर्मन को अपने गांव में रहने के लिए अनुरोध किया, जिसके बाद बोधिधर्मन उस गांव में रहकर लोगों को बौद्ध शिक्षाएं देते रहे।
हालांकि, अभी भी गांव वालों की समस्या खत्म नहीं हुई, ज्योतिषी की भविष्यावाणी फिर से सही हुई, गांव में चोर, लुटरों की गैंग ने उत्पात मचाना शुरु कर दिया। वे गांव वालों को परेशान करने लगे, जिसके बाद बोधिधर्मन ने अपनी मार्शल आर्ट्स की अनूठी कला से ही बिना शस्त्रों से हथियारबंद लुटरों को भगा दिया, जिसके बाद गांव वाले उन्हें आसाधारण दैवीय शक्ति वाले चमत्कारी व्यक्ति मानने लगे, इसके बाद बोधिधर्मन प्रिय बौद्ध भिक्षु के रुप में लोगों के बीच में लोकप्रिय हो गए।
इसके कई सालों के बाद फिर बोधिधर्मन ने गांव छोड़कर जाने की अपनी इच्छा जताई, लेकिन तभी फिर से ज्योतिषियों ने फिर से गांव में विपत्ति आने की भविष्यवाणी की, जिसके बाद गांव में बोधिधर्मन के शिष्यों ने उन्हें किसी भी तरह गांव में रोकने का ही फैसला लिया, गांव वाले बोधिधर्मन को जिंदा या फिर मुर्दा किसी भी हालत में गांव में ही रोकना चाहते थे। क्योंकि वे जानते थे कि बोधिधर्मन ही उन्हें हर कठोर विपत्ति से बाहर निकाल सकते हैं।
इसलिए बोधिधर्मन को रोकने के लिए उनके शिष्यों ने उनके खाने में जहर मिला दिया, लेकिन बोधी धर्मन ने यह बात जान गए कि उनके खाने में जहर मिला है, और फिर उन्होंने गांव वालों से उन्हें मारने का कारण पूछा, तब गांव वालों ने बताया कि, अगर उनके शरीर को गांव में ही दफना दिया जाए तो उनका गांव किसी भी तरह के बड़े संकट से मुक्त हो जाएगा, जिसके बाद बोधिधर्मन ने जहर मिला हुआ खाना स्वाद के साथ ग्रहण कर लिया और फिर उनकी मृत्यु हो गई।
इस तरह मार्शल आर्ट्स के जन्मदाता एवं आयुर्वेद चिकित्सा के ज्ञाता बोधिधर्म के प्रति लोगों के मन में एक अलग सम्मान था। हालांकि उन्हें अपने जीवन में तमाम तरह के विरोधों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन वे बिना रुके अपने कर्तव्यपथ की तरफ आगे बढ़ते गए और लोगों को अपनी शिक्षाओं के माध्यम से शिक्षा देते रहे।
बोधिधर्म आत्म-अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा, अडिग दृढ़संकल्प एवं जागृति की मिसाल हैं। वहीं इनके द्धारा आत्मरक्षा के लिए सिखाई गई बिना शस्त्रों के लड़ाई लड़ने की अनूठी कला मार्शल् आर्ट्स आज भी दुनिया भर में काफी मशहूर है।
वहीं आज लोग मार्शल आर्ट्स की कला को विशेष तौर पर इसे सीखते हैं। वहीं भारत में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों के खिलाफ लड़ने के लिए लड़कियों को खासकर यह कला सिखाई जा रही है एवं कई स्कूलों में तो इसके लिए खास ट्रेनर भी रखे गए हैं।
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Me Bodhidharam ke bareme kafi bataya gaya hai
Thank you for Bodhidharam inf.
Ager apko baudhi dharman ke bareme our jankari chahiye to you tube or envato tech ko subscribe Kate to phir apko unki jankari mulgi thank you real me o mere purwaj hain
Our Buddha is great. All is done by him. Jay Bhim Jay Buddha Jay Bharat. Jay Bhim iissliye kyo ki Dr.Ambedkar ki wajas se hi Buddha dhamma bharat me wapas aaya…
I know bodhidharaman
The arrival of Buddhism in Japan is ultimately a consequence of the first contacts between China and Central Asia, where Buddhism had spread from the Indian subcontinent. These contacts occurred with the opening of the Silk Road in the 2nd century BCE, following the travels of Zhang Qian between 138 and 126 BCE. These contacts culminated with the official introduction of Buddhism in China in 67 CE. Historians generally agree that by the middle of the 1st century, the religion had penetrated to areas north of the Huai River in China.