बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 21 – Bihari ke Dohe 21
इस दोहे में कवि ने श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को बेहद सुंदर तरीके से बताने की कोशिश की है-
दोहा:
कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।
अर्थ:
जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितना ही यत्न कर ले, पर जैसे पानी से नमक को अलग करना असंभव है। वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना असम्भव है।
क्या सीख मिलती है:
इसमें कवि ने श्री कृष्ण के प्रति अपनी भावना को प्रकट किया है और कहा है कि चाहे कोई कितनी भी कोशिश क्यों नहीं कर ले लेकिन कोई भी उनके हदय से श्री कृष्ण के प्रति प्रेम को कम नहीं कर सकता है और न ही कोई उन्हें श्री कृष्ण की भक्ति करने से रोक सकता है।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 22 – Bihari ke Dohe 22
जो लोग सिर्फ धन को महत्व देते हैं या फिर धन को कमान के पीछे पूरी जिंदगी भर लगे रहते हैं। उन लोगों के लिए बिहारी लाल जी ने इस दोहे में कहा है कि-
दोहा:
कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार।।
अर्थ:
बिहारी जी, श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोड़ एकत्र करें या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं। जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।
क्या सीख मिलती है:
महाकवि बिहारी लाल जी ने इस दोहे में श्री कृष्ण के प्रति उनके अटूट प्रेम और विश्वास की व्याख्या की है और बताया है कि श्री कृष्ण की साधना मात्र से खुद व खुद सभी परेशानियों का हल हो जाता है।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 23 – Bihari ke Dohe 23
जो लोग लालची होते हैं, ऐसे लोगों की आदत हर किसी के सामने हाथ फैलाने की हो जाती है और फिर उनकी बुद्धि भी काम नहीं करती जिसके चलते वे समझदार और बुद्धिहीन में ही फर्क नहीं कर पाते हैं। ऐसे ही लोगों के लिए बिहारीलाल जी ने यह दोहा लिखा है-
दोहा:
घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई।।
अर्थ:
लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है, अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।
क्या सीख मिलती है:
हमें जरूरत से ज्यादा लालची नहीं बनना चाहिए क्योंकि लालची इंसान, लोभ के चक्कर में समझदार और बुद्धिहीन व्यक्ति में भी फर्क नहीं कर पाता है। वहीं ज्यादा लालची लोग अपने जीवन में कभी खुश भी नहीं रह सकते क्योंकि हमेशा और अधिक पाने की चाह में उन्हें कभी संतोष नहीं मिलता है।
निष्कर्ष-
महाकवि बिहारीलाल जी ने अपने दोहों – Bihari ke Dohe के माध्यम से जीवन के मूल्यों को बताने की कोशिश की है वहीं अगर सही मायने में अगर कोई कवि बिहारीलाल जी के दोहों का अनुसरण करें तो वह अपनी जिंदगी में सफलता हासिल कर सकता है और आगे बढ़ सकता है।
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श्री जे जन रूखे बिषय रस चिकने राम सनेहँ।
तुलसी ते प्रिय राम को कानन बसहिं कि गेहँ।61।
जथा लाभ संतोष सुख रघुबर चरन सनेह।
तुलसी जो मन खूँद सम कानन बसहुँ कि गेह।62।
तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह ।
मूँड़ मुड़ायो बादिहीं भाँड़ भयो तजि गेह।63।
तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और ।
सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर।64।
तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत।
अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत।65।
सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि।
जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि।66।
तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज।
राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरूराज।67।
तुलसी रामहिं परिहरें निपट हानि सुन ओझ।
सुरसरि गत सेाई सलिल सुरा सरिस गंगोझ।68।
राम दुरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह।69।
साहिब दीनानाथ सेां जब घटिहैं अनुराग।
तुलसी तबहीं भालतें भभरि भागिहैं भाग।
उक्त दोहों का अर्थ बताने की कृपा करें।
Bihari ke 81se100 doho ki vykhiy bataiye
Please aap inks kavayagat saundarya bhi bats dein
बिहारी के दोहे मे ‘अनियारे’ शब्द का क्या अर्थ है।
बढत बढत संपति-सलिलु, मन सरोज बढि जाइ I घटत घटत पुनि ना घटै, बरु समूल कुव्हिलाइ
इसका अर्थ क्या हे पंडितजी… बताइये..