Bihari ke Dohe
बिहारी लाल हिंदी साहित्य के एक महान यशस्वी और विद्धान कवि के रूप में जाने जाते थे। महाकवि बिहारीलाल जी विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे जिनकी प्रतिभा को देखकर हर कोई आर्कषित हो जाया करता था।
आपको बता दें कि जब 1635 ईसा पूर्व में बिहारीलाल जी आमेर के राजा जयसिंह से मिलने गए थे तब राजा जयसिंह उनकी प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बिहारी लाल जी को अपने दरबार में रख लिया।
जिसके बाद बिहारीलाल जी जयपुर नरेश के दरबार में रहकर काव्य-रचना करने लगे, जहां उन्हें पर्याप्त धन और यश मिला।
हिन्दी साहित्य के रीति काल के कवियों में बिहारीलाल जी का महत्वपूर्ण स्थान था।। महाकवि बिहारी जी अपने काव्यगत रचना के कारण पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुए थे। कवि बिहारी की रचना सतसई जो कि एक मुक्तक काव्य है।
इस रचना में कुल 719 दोहे संकलित किए गए हैं जो कि बेहद आसान और सरल भाषा में लिखी गई है और जिनके अर्थ काफी सुंदर और सरहानीय है।
बिहारीलाल जी के दोहे अर्थ समेत – Bihari ke Dohe with Meaning
आपको बता दें कि बिहारी जी की सतसई में भक्ति, नीति, हास्य व्यंग्य, वीरता, राज प्रशस्ति, धर्म, सत्संग महिमा और श्रृंगार का वर्णन बखूबी किया गया हैं। वहीं बिहारीलाल जी के दोहे – Bihari ke Dohe एक कविता नहीं बल्कि एक दर्शन की तरह हैं, जिसमें जीवन का गहरा अर्थ छिपा है। इसलिए बिहारी जी के दोहे के बारे में कहा जाता है कि –
‘सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटन लगे घाव करे गम्भीर।’
अर्थात उनके दोहे जो देखने में छोटे लगते है। लेकिन अगर इन दोहों का अर्थ को गौर से समझा जाए तो उसमे इंसान के दिल को छू जाने वाले बेहद भावुक और मार्मिक संदेश छिपे होते है।
वहीं बिहारीलाल जी ने अपने दोहों – Bihari ke Dohe के माध्यम से राधा -कृष्ण के श्रद्धा और प्रेम को जनमानस तक पहुंचाने की कोशिश की है। इसीलिए आज भी उनके दोहे काफी लोकप्रिय है। आज हम इस आर्टिकल में आपको बिहारीलाल जी के कई ऐसे दोहों – Bihari ke Dohe के बारे में बताएंगे अगर जिनका अनुसरण किया जाए तो लोगों का जीवन बदल सकता है और वे सफलता की नई ऊंचाइयों को छू सकते हैं –
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 1- Bihari ke Dohe 1
इस दोहे में बिहारीलाल जी ने प्रेम के महत्व को समझाने की कोशिश की है –
दोहा:
दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति।।
अर्थ:
प्रेम की रीति अनूठी है। इसमें उलझते तो नयन है, पर परिवार टूट जाते हैं, प्रेम की यह रीति नई है इससे चतुर प्रेमियों के चित्त तो जुड़ जाते हैं पर दुष्टों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।
क्या सीख मिलती है:
बिहारीलाल जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें प्यार के महत्व को समझना चाहिए और मिल-जुल कर रहना चाहिए।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 2 – Bihari ke Dohe 2
इस दोहे में बिहारीलाल जी ने अपनी मन की वेदना श्री कृष्ण से प्रकट की है लेकिन जब उनकी वेदना भगवान श्री कृष्ण नहीं सुन रहे हैं तो वे उन्हें भी इस संसार की तरह स्वार्थी बता रहे हैं-
दोहा:
कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय। तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।
अर्थ:
संत बिहारी अपने इस दोहे में भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कान्हा मैं कब से तुम्हे व्याकुल होकर पुकार रहा हूँ और तुम हो कमेरी पुकार सुनकर मेरी मद्द नहीं कर रहे हो, मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।
क्या सीख मिलती है:
दुनिया में ज्यादातर लोग स्वार्थी जो सिर्फ अपना ही स्वार्थ देखते हैं और दूसरों की मद्द नहीं करते हैं, इसलिए कवि ने श्री कृष्ण द्धारा पुकार नहीं सुनने पर उन्हें भी स्वार्थी कहकर संबोधित किया है। अर्थात हमें स्वार्थी नहीं बनना चाहिए और परोपकार करना चाहिए।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 3 – Bihari ke Dohe 3
जो इंसान अपने स्वभाव को बदलने की कोशिश करते हैं या फिर कई लोग यह जताते हैं कि अब उनका स्वभाव पहला जैसा नहीं रहा वे सुधर गए हैं तो उन लोगों के लिए बिहारीलाल जी ने अपने इस दोहे के माध्यम से बड़ी बात कही है।
दोहा:
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच। नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
अर्थ:
बिहारी जी कहते हैं की कोई भी मनुष्य कितना भी प्रयास क्यों न कर ले फिर भी किसी भी इन्सान का स्वभाव नहीं बदल सकता जैसे पानी नल में उपर तक तो चढ़ जाता हैं लेकिन फिर भी उसका स्वभाव हैं नहीं बदलता और वो बहता नीचे तरफ ही है।
क्या सीख मिलती है:
बिहारीलाल जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने प्राकृतिक स्वभाव को कभी नहीं बदलना चाहिए और हम चाहे कितनी भी सफलता हासिल क्यों नहीं कर लें लेकिन हमें कभी इस पर घमंड नहीं करना चाहिए।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 4 – Bihari ke Dohe 4
जब कोई इंसान एक ही गलती बार-बार दोहराता है या फिर विपत्ति के समय प्रयास किए बिना ही सब कुछ भगवान पर डाल देता है तो ऐसे लोगों के लिए बिहारीलाल जी ने इस दोहे में बड़ी बात कही है।
दोहा:
नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि। तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।।
अर्थ:
बिहारीलाल जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि कान्हा शायद तुम्हेँ भी अब अनदेखा करना अच्छा लगने लगा हैं या फिर मेरी पुकार फीकी पड़ गयी हैं मुझे लगता है की हाथी को तरने के बाद तुमने अपने भक्तों की मदत करना छोड़ दिया।
क्या सीख मिलती है:
यशस्वी और विद्धान कवि बिहारीलाल जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा ईश्वर के भरोसे नहीं बैठना चाहिए क्योंकि यह जरूरी नहीं कि ईश्वर भक्त की प्रार्थना को बार-बार सुन ही ले। इसलिए खुद कुछ करने में भी यकीन करना चाहि।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 5 – Bihari ke Dohe 5
बिहारीलाल जी ने नीचे लिखे दोहे मे राधारानी से अपनी जीवन की परेशानी को दूर करने की प्रार्थना की है-
दोहा:
मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय। जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।
अर्थ:
हिंदी साहित्य के महाकवि कवि बिहारीलाल जी राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएं वही चतुर राधा दूर करेंगी। जिनके शरीर की छाया पड़ते ही सांवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं। अर्थात मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेंगी। जिनकी झलक दिखने मात्र से सांवले कृष्ण हरे अर्थात प्रसन्न जो जाते हैं।
क्या सीख मिलती है:
हमें ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए क्योंकि हमारी सभी कष्टों का निवारण ऊपर वाला ही करता है।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 6 – Bihari ke Dohe 6
इस दोहे के माध्यम से महाकवि ने राधा-कृष्ण की सुंदर जोड़ी के बारे में व्याख्या की है-
दोहा:
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर। को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
अर्थ:
यह राधा-कृष्ण की सुंदर जोड़ी चिरंजीवी हो एक बैल की पुत्री हैं और दूसरा जोतने वाले का भाई इनमें गहरा प्रेम होना ही चाहिए।
क्या सीख मिलती है:
बिहारी लाल जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि जिस तरह से राधा-कृष्ण एक दूसरे के बिना अधूरे हैं उसी तरह पति-पत्नी एक-दूसरे के बिना अधूरे है। इसलिए पति-पत्नी के बीच राधा-कृष्ण की तरह ही प्यार होना चाहिए।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 7 – Bihari ke Dohe 7
इस दोहे में बिहारीलाल जी ने माता सीता के विरह के समय में चंद्रमा से संवाद की व्याख्या की है-
दोहा:
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव। कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।
अर्थ:
इस दोहे में बिहारीलाल जी कहते हैं कि मुझे लगता हैं कि या तो मैं पागल हूं या फिर पूरा गांव. मैंने बहुत बार सुना हैं और ये सभी लोग कहते हैं कि चंद्रमा शीतल हैं लेकिन तुलसीदास के दोहे के अनुसार माता-सीता ने इस चंद्रमा से कहा था कि मैं यहाँ विरह की आग में जल रही हूँ यह देखकर ये अग्निरूपी चंद्रमा भी आग की बारिश नहीं करता।
अगले पेज पर और भी दोहे हैं…
Aap muje plz inke bhakti niti sringar ke doho ka earth btao
अच्छा प्रयास है, अनवरत प्रभु कृपा बनी रहे
सुत पितु मारक जोग लखि , उपज्यो हिय अति सोग।
पुनि विहँस्यो पुन जोयसी , सुत लखि जारज जोग।। दोहे का अर्थ क्या है….
क्या बात है पर ये जो दोहा आपने लिखी है क्या इसका अर्थ स्पष्ट रूप से देंगे ?
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल । अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल ।।
ये अर्थ समझने योग्य नहीं है– राजा जयसिंह का अपने विवाह के बाद अपने राज्य के तरफ से पूरा ध्यान उठ गया था, तब बिहारी जो राजकवि थे उन्होंने यह दोहा सुनाया था।
bihari ji ke bahut achhe dohe aapne hm sbhi ke sath share kiye….
Nikhil ji,
Kuchh hi samay me is lekh main or adhik Bihari ke dohe add kiye jayenge. aap hamase social media par jude rahe.