बिहारीलाल जी के दोहे अर्थ समेत – Bihari ke Dohe with Meaning

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 8 – Bihari ke Dohe 8

बिहारीलाल जी ने अपने इस दोहे के माध्यम से कृष्ण रूप का सुंदर वर्णन किया है –

दोहा:

मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल। यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।

अर्थ:

बिहारीलाल जी अपने इस दोहे में कहते हैं हे कान्हा, तुम्हारें हाथ में मुरली हो, सर पर मोर मुकुट हो तुम्हारें गले में माला हो और तुम पीली धोती पहने रहो इसी रूप में तुम हमेशा मेरे मन में बसते हो।

क्या सीख मिलती है:

श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे बिहारीलाल जी ने इस दोहे में अपने प्रिय कृष्ण के सुंदर रूप का वर्णन किया है जो कि वाकई प्रशंसनीय है।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 9 – Bihari ke Dohe 9

श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे महाकवि बिहारीलाल जी ने इस दोहे में गोपियों द्धारा श्री कृष्ण की बांसुरी चुराए जाने का वर्णन किया है।

दोहा:

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय। सौंह करै, भौंहन हँसे, देन कहै नटि जाय॥

अर्थ:

इस दोहे में महान कवि बिहारी लाल जी कहते हैं कि गोकुल की गोपियां नटखट कान्हा की मुरली इसलिए छिपा देती हैं और आपस में हँसती हैं ताकि कान्हा के  मुरली मांगने के बहाने उन्हें कृष्ण से बातें करने का मौका मिल जाए। इसके साथ में गोपियाँ कृष्ण के सामने नखरें भी दिखा रही हैं। वे अपनी भौहों से तो कसमे खा रही हैं। लेकिन उनके मुँह से ना ही निकलता है।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारीलाल जी ने अपने इस दोहे में गोपियों का श्री कृष्ण के प्रति स्नेह को बताया है अर्थात इससे हमें यह सीख मिलती है कि अगर हम किसी से सच्चे दिल से स्नेह करते हैं तो हमारे अंदर उनसे मिलने की चाहत होनी चाहिए और हमें उन मौकों की तलाश में रहना चाहिए जिससे हम अपने प्रिय से बात कर सकें।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 10 – Bihari ke Dohe 10

बिहारीलाल जी ने अपने इस दोहे में सुहागिन स्त्री की सुंदर आंखों की तारीफ का वर्णन किया है-

दोहा:

काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन, आंगुरि तो री कटैगी गंड़ासा
अर्थ:

बिहारी के इस दोहे में अतिश्योक्ति का परिचय मिलता है, जैसे कि वह कह रहे हैं। हे सुहागवती अपनी आंखों में काजल मत लगा वरना तेरे नैन गड़ासे अर्थात चारा काटने के औजार जैसे कटीले हो जाएंगे।

क्या सीख मिलती है:

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि सुहागवती स्त्री को बहुत ज्यादा सज-संवरकर नहीं रहना चाहिए क्योंकि उनका अत्याधिक सुंदर रूप भी पति का मोह भंग करता है।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 11 – Bihari ke Dohe 11

इस दोहे के माध्यम से कवि ने एक प्रेमिका की अपने प्रेमी के प्रति प्रेम भावना को प्रकट करने की कोशिश की है। इस समाज में ऐसे भी कई लोग होते है जो सीधे अपने दिल की बात नहीं कह पाते और अपने दिल की बात अपने करीबियों की मद्द से अपने प्रेमी तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं-

दोहा:

कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात। कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥

अर्थ:

कवि बिहारीलाल जी ने इस दोहे में एक प्रेमिका की मन की स्थिति का वर्णन किया जो दूर बैठे अपने प्रेमी के लिए सन्देश भेजना चाहती हैं लेकिन प्रेमिका का सन्देश इतना बड़ा हैं कि वह कागज पर समां नहीं पाएगा। लेकिन  संदेशवाहक से कहती हैं की तुम मेरे सबसे करीबी हो इसलिए अपने दिल से तुम मेरे दिल की बात कह देना।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारीलाल जी के इस दोहे से यह प्रेरणा मिलती है कि अगर किसी के लिए हमारे अंदर प्रेम है तो उसे जल्द ही उजागर कर देना चाहिए।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 12 – Bihari ke Dohe 12

समाज में कई ऐसे प्रेमी जोड़े देखने को मिलते हैं। जिन्हें बात करने के लिए लफ्जों की जरूरत नहीं होती है बल्कि आंखों से ही वे सारी बातें कर लेते हैं और आंखों ही आंखों में वे एक-दूसरे को रूठते मनाते भी हैं।

दोहा:

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात। भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात॥

अर्थ:

इस दोहे में बिहारीलाल जी ने दो प्रेमियों के बीच में आँखों ही आँखों में होने वाली बातों को दर्शाया है। वो कहते हैं की किस तरह लोगो के भीड़ में होते हुए भी प्रेमी अपनी प्रेमिका को आँखों के जरिये मिलने का संकेत देता हैं और उसे कैसे प्रेमिका अस्वीकार कर देती हैं, प्रेमिका के अस्वीकार करने पर कैसे प्रेमी मोहित हो जाता हैं जिससे प्रेमिका रूठ जाती हैं।

जिसके बाद वे दोनों मिलते हैं और उनके चेहरे खिल उठते हैं लेकिन ये सारी बातें उनके बीच आंखों से होती हैं।

क्या सीख मिलती है:

जब कोई इंसान किसी से सच्चे दिल से प्यार करता है तो उसे बात करने के लिए शब्दों की जरूरत भी नहीं पड़ती क्योंकि दोनों में इतनी अच्छी बॉन्डिंग होती है कि वे आंखों से इशारे ही इशारे में दिल की बात कर लेते हैं।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 13 – Bihari ke Dohe 13

इस दोहे में कवि ने उस स्थिति का वर्णन किया है जब संकट के समय में लोग अपने आपसी मतभेद और ईर्ष्या को भूल जाते हैं और फिर एक साथ बैठते- उठते हैं।

दोहा:

कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।

अर्थ:

इस दोहे में कवि ने भरी दोपहरी से बेहाल जंगली जानवरों की हालत का चित्रण किया है। भीषण गर्मी से बेहाल जानवर एक ही स्थान पर बैठे हैं। मोर और सांप एक साथ बैठे हैं। हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं।

कवि को लगता है कि गर्मी के कारण जंगल किसी तपोवन की तरह हो गया है। जैसे तपोवन में विभिन्न इंसान आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठते हैं, उसी तरह गर्मी से बेहाल ये पशु भी आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठे हैं।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारीलाल जी इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि संकट के समय में हमें अपने आपसी मतभेदों को भूल जाना चाहिए और धैर्य से काम लेना चाहिए तभी हम एक साथ बैठकर किसी भी परेशानी का सामना कर सकते हैं क्योंकि एकता से ही हिम्मत मिलती है और परेशानी से निपटने की प्रेरणा भी।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 14 – Bihari ke Dohe 14

इस दोहे में कवि ने नायिका के सुंदरता का बखूबी वर्णन किया है और ये भी बताने की कोशिश की है कि किसी की सुंदरता को चित्रित नहीं किया जा सकता है, इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है-

दोहा:

लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर।।

अर्थ:

महाकवि बिहारीलाल जी इस दोहे में नायिका के अतिशय सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि नायिका के सौंदर्य का चित्रांकन करने को गर्वीले ओर अभिमानी चित्रकार आए लेकिन उन सबका गर्व चूर-चूर हो गया। क्योंकि कोई भी उसके सौंदर्य का वास्तविक चित्रण नहीं कर पाया दरअसल नायिका का सुंदर रूप हर पल बढ़ता ही जा रहा था, जिसका शब्दों में बखान करना बेहद मुश्किल है।

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11 COMMENTS

  1. श्री जे जन रूखे बिषय रस चिकने राम सनेहँ।
    तुलसी ते प्रिय राम को कानन बसहिं कि गेहँ।61।

    जथा लाभ संतोष सुख रघुबर चरन सनेह।
    तुलसी जो मन खूँद सम कानन बसहुँ कि गेह।62।

    तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह ।
    मूँड़ मुड़ायो बादिहीं भाँड़ भयो तजि गेह।63।

    तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और ।
    सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर।64।

    तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत।
    अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत।65।

    सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि।
    जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि।66।

    तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज।
    राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरूराज।67।

    तुलसी रामहिं परिहरें निपट हानि सुन ओझ।
    सुरसरि गत सेाई सलिल सुरा सरिस गंगोझ।68।

    राम दुरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
    भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह।69।

    साहिब दीनानाथ सेां जब घटिहैं अनुराग।
    तुलसी तबहीं भालतें भभरि भागिहैं भाग।
    उक्त दोहों का अर्थ बताने की कृपा करें।

  2. बिहारी के दोहे मे ‘अनियारे’ शब्द का क्या अर्थ है।

  3. बढत बढत संपति-सलिलु, मन सरोज बढि जाइ I घटत घटत पुनि ना घटै, बरु समूल कुव्हिलाइ

    इसका अर्थ क्या हे पंडितजी… बताइये..

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