Poem on River
नदी पर कवितायेँ – Poem on River
Poem on River
“छोटी-सी हमारी नदी”
छोटी-सी हमारी नदी टेढ़ी-मेढ़ी धार,
गर्मियों में घुटने भर भिगो कर जाते पार।
पार जाते ढोर-डंगर, बैलगाड़ी चालू,
ऊँचे हैं किनारे इसके, पाट इसका ढालू।
पेटे में झकाझक बालू कीचड़ का न नाम,
काँस फूले एक पार उजले जैसे घाम।
दिन भर किचपिच-किचपिच करती मैना डार-डार,
रातों को हुआँ-हुआँ कर उठते सियार।
अमराई दूजे किनारे और ताड़-वन,
छाँहों-छाँहों बाम्हन टोला बसा है सघन।
कच्चे-बच्चे धार-कछारों पर उछल नहा लें,
गमछों-गमछों पानी भर-भर अंग-अंग पर ढालें।
कभी-कभी वे साँझ-सकारे निबटा कर नहाना
छोटी-छोटी मछली मारें आँचल का कर छाना।
बहुएँ लोटे-थाल माँजती रगड़-रगड़ कर रेती,
कपड़े धोतीं, घर के कामों के लिए चल देतीं।
जैसे ही आषाढ़ बरसता, भर नदिया उतराती,
मतवाली-सी छूटी चलती तेज धार दन्नाती।
वेग और कलकल के मारे उठता है कोलाहल,
गँदले जल में घिरनी-भँवरी भँवराती है चंचल।
दोनों पारों के वन-वन में मच जाता है रोला,
वर्षा के उत्सव में सारा जग उठता है टोला।
~ रवींद्रनाथ ठाकुर
Hindi Poems on Nadiya
“वो एक नदी है।“
हिमखंडों से पिघलकर,
पर्वतों में निकलकर ,
खेत खलिहानों को सींचती ,
कई शहरों से गुजरकर
अविरल बहती , आगे बढ़ती,
बस अपना गंतव्य तलाशती
मिल जाने मिट जाने,
खो देने को आतुर
वो एक नदी है।
बढ़ रही आबादी
विकसित होती विकास की आंधी
तोड़ पहाड़, पर्वतों को
ढूंढ रहे नई वादी,
गर्म होती निरंतर धरा,
पिघलते , सिकुड़ते हिमखंड
कह रहे मायूस हो,
शायद वो एक नदी है।
लुप्त होते पेड़ पौधे,
विलुप्त होती प्रजातियां,
खत्म होते संसाधन,
सूख रहीं वाटिकाएं
छोटे करते अपने आंगन,
गौरेया, पंछी सब गुम गए,
पेड़ों के पत्ते भी सूख गए
सूखी नदी का किनारा देख,
बच्चे पूछते नानी से,
क्या वो एक नदी थी।
~ आरती लोहनी
Nadiyon par Kavita in Hindi
“नदी की धारा”
कल कल करती नदी की धारा.
बही जा रही बढ़ी जा रही.
प्रगति पथ पर चढ़ी जा रही.
सबको जल ये दिये जा रही.
पथ न कोई रोक सके.
और न कोई टोक सके.
चट्टानों से टकराती है,
तूफानों से भीड़ जाती है.
रूकना इसे कब भाता है.
थकना इसे नहीं आता है.
सोद्देश्य स्व-पथ पर पल पल
बस आगे बढ़ती जाती है.
कल -कल करती जल की धारा.
जौहर अपना दिखलाती है.
Poem on River
“नदी”
नदी निकलती है पर्वत से,
मैदानों में बहती है.
और अंत में मिल सागर से,
एक कहानी कहती है.
बचपन में छोटी थी पर मैं,
बड़े वेग से बहती थी.
आँधी-तूफान, बाढ़-बवंडर,
सब कुछ हँसकर सहती थी.
मैदानों में आकर मैने,
सेवा का संकल्प लिया.
और बना जैसे भी मुझसे,
मानव का उपकार किया.
अंत समय में बचा शेष जो,
सागर को उपहार दिया.
सब कुछ अर्पित करके अपने,
जीवन को साकार किया.
बच्चों शिक्षा लेकर मुझसे,
मेरे जैसे हो जाओ.
सेवा और समर्पण से तुम,
जीवन बगिया महकाओ.
~ डॉ. परशुराम शुक्ल
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Good poems
3 one is the most inspirational
Very nice tnx for poem
Nice poems Yeh mujhe bhooth help diya he. shukriya!!